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________________ २४५ भोक्त्रापत्तरविभागश्चेत् स्याल्लोकवत् । २११११३ ॥ कारणदोष परिहृत्य कार्यदोष परिहारार्थमारम्भः । भोग्यस्य भोवत्रापत्तिः ब्रह्मणो निर्विशेषस्य कारणत्वाद् भोक्त भग्यत्वं भोग्यस्य च भोक्त त्वमापद्यते । अतो न विभाग इति चेत्; स्याल्लोकवत् । यथा लोके कटक कु ंडलादीनां सुवर्ण कारणत्वेन सुवर्णानन्यत्वेऽपि न कटकस्य कुण्डलत्सेवं न भोग्यस्य भोक्त त्वम् । कारण दोष का परिहार करके अब कार्य दोष का पहिार प्रारम्भ करते हैं। कहते हैं कि- भोग्य जगत की भोग्यता कारण में असक्त होगी अर्थात् निविशेष कारण ब्रह्म से ही ये भोग्य भोक्ता और भोग तीनों जागतिक तत्व उत्पन्न हुए हैं, इसलिए इनका प्राश्लेष परमात्मा में भी होगा, क्यों कि वह इनसे अलग तो है नहीं । इसका परिहार करते हैं कि जैसे कटक कुडल प्रादि प्राभूषण सुवर्ण से ही बनते हैं, सुवर्ण से भिन्न नहीं हैं फिर भी कटक को कुंडल नहीं कह सकते, इसी प्रकार भोग्य का भोक्तत्व संभव नहीं है । तदनन्यत्वमारम्भण शब्दादिभ्यः | २|१|१४|| श्रुतिविरोषं परिहरति । "वाचारम्भणं विकारो नामधेयंमृत्तिकेत्येव सत्यम्” इति । तत्र विकारो वाङ्मात्रेणैवारभ्यते न वस्तुत इत्यर्थः प्रतिभाति । तथा च सति कस्य ब्रह्म कारणं भवेत् ? अतः श्रति वाक्यस्यार्थमाहप्रारंभंगशब्दादिभ्यस्तदनन्यत्वं प्रतीयतें । कार्यकारणानन्यत्वं मिथ्यात्वम् 1 : न श्रुतिवाक्यों मे प्रतीत होने वाली विरुद्धता का परिहार करते हैं । "वाचारम्भणं विकारो नामधेयं" इत्यादि वाक्य से तो ऐसा प्रतीत होता है। कि - विकार केवल नाममात्र का है, वास्तविक नहीं । इस स्थिति में ब्रह्म 'किसका कारण होगा ? इस पर श्रुति का अर्थ करते हैं कि- श्रारंभरण शब्द से अनन्यता की प्रतीति होती है अर्थात् कार्य की कारण से अनन्यता है । 'मिथ्यात्व नहीं है । येनात्वं तामसबुद्धयः प्रतिपादयंति तेह्मवादाः सूत्र श्रुतिनाशनेन तिलापः कृताः वेदितव्याः । श्रन्तः प्रविष्टचोरवर्षार्थमेवैष आरम्भः । मलौकिक प्रमेय ं सूत्रानुसारेणव निर्णय उचितः न स्वतत्रतया किंचित् परि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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