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________________ २४० में, वैराग्य विविक्तात्मज्ञान प्रादि में स्मृतित्व वचन की प्रमाणिकता अब मानते हैं, तब विरुद्ध स्मृतियों के इन विचारों को अप्रामाणिक नहीं कह सकते, इसलिए उनके विरोध का परिहार नहीं हो सकता, ऐसी मान्यता के निराकरण के लिए प्रथम के तीन सूत्रों की योजना की गई है। तुल्य बल वाली श्रुतियों में जब परस्पर विरोध होता है तब किसी भी प्रकार उसका समाधान संभव नहीं होता उस स्थिति में युक्ति से श्रति विरुद्धता का परिहार किया जाता है । द्वितीयपाद में, बोधकत्व का प्रभाव होने पर भी उन सांख्य मादि मतों से किसी प्रकार के विशिष्ट पुरुषार्थ की सिद्धि संभव है ऐसा संशय करते हुए बाह्य प्रवाह्य मतों को एकत्र कर निराकरण करते हैं। ऐसा वाह्य मबाह्य मतों में समान भ्रान्ति होने पर ही किया गया है। दो पादों से, भली प्रकार से वेदार्थ विचार करने के लिए पैदिक पदार्थों के क्रम स्वरूप पर विचार किया गया है। इस प्रकार संपूर्ण अध्याय से अविरोध का प्रतिपादन किया गया है। कपिलादिमहषिकृतस्मृतेनं मन्वादिवदन्यत्रोपयोगः, मोक्षकोपयोगित्वात् । तत्राप्यनवकाशे वैयपित्तरिति चेन्न । कपिलव्यतिरिक्त शुद्ध ब्रह्मकारणवाचक स्मृत्यनवकाशदोष प्रसंगः । "प्रहं सर्वस्य जगत' प्रभवः प्रलयस्तथा" इति । कपिलादि महर्षियों को स्मृतियों का मनु मादि स्मृतियों की तरह कोई और भी उपयोगिता नहीं है, एक मात्र मोक्ष तत्त्व का विवेचन करने में कारण ही मनु नादि की उपयोगिता मानी गई है। यदि करें कि सांस्य मादि को-मान्यता न दी जायेगी तो स्मृतियों की उपयोगिता ही न होगी सो बात नहीं है कपिल से भिन्न शुद्ध ब्रह्म कारण वाचक स्मृतियों की मान्यता सदा होगी । जैसी कि-"महं सर्वस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा" मादि स्मृति वाक्यों की मान्यता है । इतरेषां चानुपनब्धेः ।।१।२॥ प्रकृति व्यतिरिक्तानां महदादीनां सोके वेदे चानुपलब्धेः । सांस स्मृति इसलिए वैदिकों के लिए मान्य नहीं है कि-वेद और स्मृति कहीं भी, प्रकृति के अतिरिक्त महत् आदि का वर्णन नहीं मिलता। एतेन योगः प्रत्युक्तः ।२।१३॥
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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