SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ को सिद्धवत् कारण बतला कर "मात्रा संसर्गः" इत्यादि से प्रात्मा का संसार से विषय संबंध मात्र दिखलाया है । “यद् द्वैतम्" से लेकर अंत तक विशेष अकथ्यता बतलाई है । चक्षु तो रूप को ही देखते हैं प्रात्मा को नहीं ? यदि रूप को ही प्रात्मा माने तो रूप कोई अदृश्य वस्तु तो है नही जिसे देखने की बात पर बल दिया जाये, आत्मा तो अदृश्य वस्तु है दृष्टव्य कहा गया है, उसे चक्षु नहीं देखते । दृष्ट स्वरूप, दृश्य ज्ञान से ज्ञात नहीं हुआ करता, क्यों कि उसका स्वरूप दृश्य नहीं होता । ऐसा द्रष्ट्र दृश्य व्यवहार बतलाकर, अज्ञानावस्था में विशेषतः ज्ञान को अशक्य बतलाकर "तत्र वा अन्यदिव स्यात्' से बतलाया कि ज्ञान हो जाने के बाद कर्म और कर्तृ का भाव ही नहीं रह जाता । यही अमृतत्व ज्ञान है । इस प्रकार प्रकरण के आदिमध्या वसान पर विचारने से यह प्रकरण जीव परक ही समझ में भाता है। जगत्कर्तुत्व ही उसकी ब्रह्मता है, जो कि उसका उत्कर्ष है । उसके अतिरिक्त ब्रह्म कोई दूसरी वस्तु है ऐसा नहीं कह सकते । ऐसा मानने में अर्थ विरोध भी होगा, इस नियम से यही निश्चित होता है कि वेद में सृष्टि वाक्यों में ब्रह्म जगत् कारण नहीं है, प्रकृति कारणवाद मानना ही युक्त है । इत्येवं प्राप्ते उच्यते-वाक्यान्वयात् । इदं वाक्यं भगवति एवान्वेति । नात्र जीव प्राधान्य गंधोऽपि सर्वत्र भगवदन्वयनै जीवस्यापि प्रियत्वम् । तस्यैव सुख रूपत्वात् । सर्वोपनिषदनुरोधेनै वास्याप्यर्थस्य वक्त मुचितत्वात् "तमेव विदित्वा मतिमृत्युमेति" "प्रानंदायेव खलु इमानि भूतानि जायते" सर्व एवात्मानोव्युच्चरंति “एष ह्य वानंदयाति" इत्यादि श्रुति सहस्र नि संदिग्धैः ब्रह्मणः स्वरूपं कार्यमंशाश्च प्रतिपादिता, इतीदमपि वाक्यं तत्पपमेवोचितम् । सर्व व्यवहारस्य तन्मूलकत्वेन पूर्वमुक्तत्वात् । विषय स्पर्शी विज्ञातृत्वमपि तस्यैव । एवं सति सर्वमेव संगतं भवेत् । मतो वाक्याम्वयान जीव परत्वं येन प्रकृतिवादः स्यादिति । उक्त मत पर-वाक्यान्वयात् सूत्र प्रस्तुत करते हैं । यह वाक्य भगवान में ही मन्वित होता है । इसमें जीव प्राधान्य की तो गंध भी नहीं है । सर्वत्र भगवदन्वय है इसलिए जीव की भी प्रियता है । क्यों कि वह परमात्मा ही सुख रूप है। समस्त उपनिषदों के अनुसार इस वाक्य का भी अर्थ करना चाहिए, "उसे जानकर मृत्यु का अतिक्रमण करता हैं" प्रानन्द से ही ये सारे भूत उत्पन्न होते हैं "सब कुछ इस प्रात्मा से ही जाने जाते हैं" "इसी से
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy