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________________ ( २८ ) जीवपक्ष को उपस्थित करते हुए ब्रह्मोपासना की बात सिद्धान्ततः निश्चित करते हैं। दियीय अधिकरण वाणिशाखा में "ब्रीहिर्वा यवो वा' इत्यादि मंत्र में जो हिरण्मयपुराण की चर्चा है वह हिरण्मय पुरुष जीव है अथवा ब्रह्म इस संशय पर जीव पक्ष का मर्तक निराकरण करते हुए ब्रह्म होने की बात दृढ़ता पूर्वक निश्चित करते हैं। तृतीय अधिकरण कठवल्ली की द्वितीयवल्ली में अन्त में “यस्य ब्रह्म च क्षयं च उभं भवत ओदनः "आदि में जिस भोक्ता का उल्लेख है वह जीव है अथवा ब्रह्म इम मंशय पक्ष का निराम करते हुए युक्तिपूर्वक ब्रह्म को ही भोक्ता सिद्ध करते है। चतुर्थ अधिकरण ____ काटक में ततोयवल्ली में "ऋतंपिवन्ती सुकृतस्य लोके" इत्यादि शुति है यह जीव परक है या ब्रह्म परक इस संशय पर पूर्वपक्ष प्रस्तुत करते हैं कि इम श्रुति में द्विवचन का प्रयोग है तथा यह र ति जीव प्रकरण की है अतः यह बद्धमुक्त जीव फा निरूपण कर रही है । इस पर सिद्धान्त कहते हैं कि इस श्रुति में गुहा में दो की स्थिति बतलाई गई है जो कि हृदयाकाश में स्थित जीव और परमात्मा का उल्लेख है, यह वाक्य ब्रह्म परक ही है । पंचम अधिकरण छान्दोग्य के पष्ठ प्रपाठक में “य एषोक्षिणि पुरुषो दृश्येत" इत्यादि में अक्षिप्रतिबिम्बित पुरुष को ब्रह्मत्वेन उपासना बतलाई गई है अथवा ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन है । प्रतिबिम्बित की उपासन की बात पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित कर सिद्धान्त स्थिर करते हैं कि अक्षिपुरुण शब्द से अक्षिप्रतिबिम्ब अर्थ ग्राम नहीं हैं किन्तु सर्वव्यापक ब्रह्म के उत्तम अक्षिस्थान में उपस्थित होने का उपदेश मानना चाहिए, उसका दर्शन प्रार्ष ज्ञान से ही संभव है। षष्ठ अधिकरण "यः पृथिव्या अन्तरो यं पृथिवी न वेद" इत्यादि वृहदारण्यक मंत्र में अधिदैव अघिलोक अधिवेद अधियज्ञ अधिभूत और अध्यात्म के अन्तर्यामी की चर्चा है क्या उन सब का एकमात्र अन्तर्यामी परमात्मा ही है अथवा उन उन संज्ञाओं
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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