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________________ १६६ इति । " अहहह्मलोकं गच्छन्ति" इत्यादि प्रदेशेषु ब्रह्मसंपत्तिरेवोक्ता अत्रापि संप्रसादवचनात् परंज्योतिब्रह्मव । तम्माद् यः कश्चन् शब्दो ब्रह्मस्थाने पठितस्तद्वाचक एवेति । जो भी ब्राह्म धर्म की, युक्ति से उनकी सिद्धि की गई अभी कौर भी कुछ निर्णयाधीन हैं उनमें चार का यहां निरूपण करेंगे उक्त प्रसंग पर विचारने पर समझ में आता है कि ज्योति शब्द महाभूत में ही रूढ़ है अतः उसी का यहाँ वर्णन प्रतीत होता है । इस मत पर कहते हैं कि उक्त प्रकरण का वर्ण्य ज्योति तत्त्व ब्रह्म ही है, क्यों कि सभी जगह उसका ब्रह्म के रूप में ही विवेचन किया गया है "सता सौम्य तदा संपन्नो भवति " "सति संपद्यामह" "अहरहर्गच्छन्ति" इत्यादि सुषुप्ति के वर्णनों में परमात्मा की प्राप्ति की ही चर्चा है, यहाँ पर भी संप्रसाद शब्द से ज्योति शब्द ब्रह्म वाचक ही निश्चित होता है । जो कोई भी शब्द ब्रह्म के स्थान पर कह जायेंगे वे सभी ब्रह्मवाचक ही होंगे, ऐसा निश्चित है । प्रकाशोऽर्थान्तरत्वादिवरपदेशात् | १|३|४१| "आकाशो वै नामरूपयोनिर्वहिता ते यदन्तरा तद् ब्रह्मति" श्रूयते : तत्राकाशशब्दे संदेहः, भूताकाशः परमात्मा वा ? नामरूप निर्वाहमात्रत्वमवकाशदानात् भूताकाशस्यापि भवतीति न ब्रह्मपरत्वम् । अन्यस्य च नियामकस्याभावात् । आकाश नामरूप का निर्वाहक है, उसमें जो निहित है वह ब्रह्म है 'ऐसी श्रुति है । यहाँ प्राकाश शब्द पर संशय होता है कि बहु भूताकाश वाची है या ब्रह्मवाची ? नामरूप के निर्वाहक और अवकाश देने से भूताकाश का वाची ही समझ में याता है ब्रह्मपरक नहीं । श्राकाश के अतिरिक्त किसी और में निर्वाहकता का अभाव है। इत्येवं प्राप्त उच्यते-- श्राकाशः परमात्मा, प्रर्थान्तरत्वादि व्यषेदशात् । यद् भूताकाशस्य प्रयोजनं श्रुतिसिद्धं तस्मादन्यस्य व्यपेदशः कार्यान्तरादिव्यपदेशश्च । अत्रैव हि सिद्धवत्कारेणोत्कृष्टधर्मा प्रतदीया तदेव ब्रह्म ेति । नापि नामरूप निर्वाह आकाशस्य माहात्म्यहेतुर्भवति । वै निश्चयेनेति सिद्धवत् कारान्नोपासनापरत्वम् निर्वाहस्य ब्रह्मधर्मत्वं न श्रुत्यन्तरसिद्धमिति
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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