SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५ . ) चतुर्थ पाद में पुष्टि मर्यादा भेद से फल एवं लीला नित्यता आदि का वर्णन किया गया है । प्रत्येक पाद में विभिन्न अधिकारयों में विषय, संशय, पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और संगति के रूप से विचार किया गया है । संगति सभी स्थानों पर स्पष्ट है पूर्व के चार अवयवों का ही निरुपण है । जहाँ केवल सिद्धान्त मात्र की स्थापना की गई है वहाँ सिद्धान्त विषय के अभाव के रूप में पूर्वपक्ष की कल्पना गई है । प्रथम अध्याय- प्रथम पाद प्रथम अधिकरण वेदान्त वाक्यों के विचार के विषय में वेदान्त वाक्यों पर विचार करना चाहिये या नहीं ऐसा संशय करते हुए व्याकरण आदि से ही वेदार्थ निर्णय हो जाता है अतः विचार अपेक्षित नहीं है ऐसा पूर्वपक्ष उपस्थित कर सिद्धान्त स्थिर करते हैं कि बिना विचार किये व्याकरण आदि से वेदार्थ संदेह का निरास सम्भव नहीं है, अतः विधिपूर्वक विचार आवश्यक है । जैसे कि- - इस लोक की गति कौन है ? उसने कहा आकाश" इस छान्दोग्य श्रति में उल्लेख्य आकाश शब्द से भूताकाश अभिप्रेत या परमात्मा, इस संशय का निरास ब्रह्मविचार शास्त्र से ही हो सकता है व्याकरण आदि से नहीं । अर्थ शब्द, मंगल, अधिकार, आनन्तर्य ओर अर्धान्तरोपक्रम आदि चार अर्थों में प्रयुक्त होता है । इस सूत्र में अर्धान्तरोपक्रम अर्थ तो संभव हो ही नहीं सकता । अधिकारार्थक ही है । अतः शब्दः हेतु अर्थ का द्योतक है । द्वितीय अधिकरण ब्रह्म के कर्त्तव्य और अकर्तव्य पर संशय करते हुए अकर्तृत्व को पूर्वपक्ष मानकर सिद्धान्त रुप से कर्त्तव्य को निश्चित करते हैं ।' 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म "श्रुति में जो ब्रह्म का सत्य स्वरुप बतलाया गया है उससे तो कत्त "व में विरोध होने से संशय होता है किन्तु "यतोवा इमानि" इत्यादि श्रुति स्पष्ट रूप से 'ब्रह्म के कर्तृत्व का निरूपण करती है दोनों ही बातें सर्व समर्थ प्रभु में संभव हैं अतः ब्रम्ह का जगत् कत्तूत्व सिद्ध हैं ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy