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________________ १९० स्यात् । युक्तश्चायमर्यो, ब्रह्मविदः सर्वज्ञतेति तस्य मात्सयं निराकरणम् व संबोधनफलम् । तस्माच्छुचं प्रत्याद्रवणादेव शूद्रपद प्रयोगो, न जाति शूद्रवाची। उपर्युक्त शंका करते हुए परिहार करते हैं, कि इस प्रसंग में शूद्र शब्द जाति सूचक नहीं है, किन्तु मत्सर युक्त तुम इस विद्या के अधिकारी नहीं हो, इस भाव का द्योतक, अनादर सूचक संबोधन है। हस द्वारा पाहत होने पर उस जानश्रुति की प्राकृति लोक से प्रभाहीन हो गई थी । यहाँ शूद्र का तात्पर्य है "शोक से हतप्रभ" इसकी ब्युत्पत्ति "शुचमनु भाद्रवतीति शूद्रः" इस प्रकार होगी। शूद्र शब्द में जो दीर्घ आकार का प्रयोग किया गया है वह पृषोदरादि गण के अनुसार है, जो कि सर्वज्ञता का ज्ञापक है। इस कथन में रयिक्व ने अपनी सर्वज्ञता सूचित की है, सूचित किया कि तुम हंसवाक्य के शोक से यहाँ पर आए हो। यदि सर्वज्ञता की बात नहीं थी तो, प्रसन्न श्रद्धालु व्यक्ति को धिक्कारने की क्या बात थी ? ऐसा मानना युक्ति संगत भी है ब्रह्मविज्ञ की सर्वज्ञता प्रसिद्ध भी है। ऐसे संबोधन का प्रयोजन, उसके मात्सर्य का निराकरण भी हो सकता है । शोक से हतप्रभ होने पर ही शूद्र' शब्द का प्रयोग किया गया है जातिवाचक नहीं है । कुत एवमत पाह- ऐसा कैसे जाना ? इसका उत्तर देते हैं क्षत्रियत्वावगतेश्चोत्तरत्र चैत्ररथेनलिंगात् ।।३॥३५॥ जानश्रुतेः पौत्रायणस्य क्षत्रियस्वमवगम्यते । गोनिष्क रथकन्यादानात् । नहिक्षतृप्रभृतयो ह्यते क्षत्रियादन्यस्य संभवंति । राजधर्मवात । न हन्यो ब्राह्मणाय भार्यात्वेन कन्यादातुं शक्नोति न च प्रथमहसवाक्यं शूद्र संगच्छते । उपदेशाच्चेति चकारार्थः । गोनिष्क रथ कन्यादान आदि प्रसंग से जानश्रुति पौत्रायण का क्षत्रियत्म निश्चित होता है । ये विशिष्ट दान सिवा क्षत्रिय किसी अन्य से संभव नहीं हैं । और न कोई ब्राह्मण को भार्यारूप से कन्या दे ही सकता है।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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