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________________ हृद्यपेक्षयातु मनुष्याधिकारत्वात् ॥१॥३॥२॥ 'नन्वनेकरूपत्वं विरुद्ध धर्मवत्वं माहात्म्या स्परूपे निरूपयति । प्रादेन मात्रत्वं च ध्यानार्थं । अंगुष्ठमात्रत्वस्य क्वोपयोग इति चेत् तत्राह-तु शब्देन निष्प्रयोजनत्वं निराक्रियते प्रस्ति प्रयोजनम् तदाह- टदिगंगुष्ठ मात्र निरूप्यते, केन हेतुना अपेक्षया, ईश्वरकार्यापेक्षया "ईश्वरः सर्व भूतानां टद्देशेऽर्जुन तिष्ठति" इति स्मृतेः । रक्षार्थमंगुष्ठ मात्र इत्यर्थः । ननु प्रमाणान्तरत्वे किमेतनसंभवति, तत्राह-मनुष्याधिकारस्वात्-मनुष्यानधिकृत्येदं मृत्यूपारव्यानं प्रवृत्तम् । अतो मनुष्याणां हृदयस्यांगुष्ठमात्र. त्वात् । यद्यपि हृदयं स्थूलं तथापि धर्मरूपं तावदेव । तावन्मात्रस्यैवावदानश्रवणात् । तस्मादंगुष्ठमात्रस्यैवं सर्वधर्मरक्षकत्वादंगुष्ठ मात्रो भगवानेवेति सिम् । परमात्मा के विरुद्ध धर्म वाले अनेक रूपों का एक रूप में निरूपण करते हैं। परमात्मा का प्रदेश' मात्र रूप ध्यानार्थ माना गया, कितुं अंगुष्ठ मात्र रूप का क्या उपयोग है ? इस संशय का समाधान तु शब्द से करते हैं, कहते हैं कि उसका भी प्रयोजन है, हृदय का परिमाण भंगुष्ठ मात्र ही बतलाया गया है, जो कि ईश्वर के अंगुष्ठ परिमाण के अनुरूप ही है " हे अर्जुन ! ईश्वर प्राविमात्र के हृदय स्थान में स्थित है". ऐसा प्रसिद्ध गीता का वचम भी है। परमात्मा, जीवात्मा की रक्षा के लिए अंगुष्ठमात्र रूप से विराजमान हैं यही उक्त गीता वाक्य का तात्पर्य हैं। 'क्या किसी अन्य प्राणी के हृदय में इसकी स्थिति नहीं है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि नहीं', केवल मनुष्य के हृदय में ही इस रूप में हैं क्यों कि मनुष्य को ही लेकर इस मृत्यूपाख्यान की रचना की गई है. क्योंकि मनुष्य का हृदय ही अंगुष्ठ परिमाणं वाला होता है। यद्यपि हृदय का स्थूल स्वरू। है किन्तु धार्मिक दृष्टि से बह सक्ष्म ही माना जाता है। उसका वैसा ही वर्णन किया गया है । अंगुष्ठमांत्र रूप से संबै धर्म रक्षक ।। भगवान् विराजमान हैं। इसलिए उनका अंगुष्ठ परिमाण निश्चित होता है। तदुपवैपि बादरायणः सम्भवात् शिश . ..:. .
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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