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________________ १६२ तास्थ्यात् तद्व्यपदेश इति । अन्वेष्टव्यस्तु तस्मिन् विश्वमानस्तन्महिमा । वासनारूपेण सर्वतंत्र वर्तत इति । जीव और ब्रह्मवाद का निर्णय करना है, श्रुतियों के अयं से इस समस्या का हल करना चाहिए । इस वाक्य में, परमार्थरूप से जीव ही ब्रह्म है, शास्त्र का ध्येय भी यही है इस अधिकरण का विचार व्यर्थ ही है । यह वाक्य भी, श्रुति के नियमानुसार हल किया जा सकता है, मनमानी नहीं । इस वाक्य में, समस्त प्रकरणों के सांकर्य का निराकरण हो जाता है । अब विचार होता है कि-इसका प्रतिपाद्य कौन है ? विचारने पर तो दहर आकाश जीव ही समझ में आता है। क्यों कि-ठीक इसी प्रकार के अन्य दूसरे प्रजापति प्रकरण में जीव को ही अमृत और अभय रूप कहा गया है । उसी भाव को स्पष्ट करने के लिए यह प्रकरण प्रतीत होता है, इसलिए जीव ही उक्त प्रकार की विशेषताओं वाला हो सकता है। अर्थ के अनुरूप भी व्याख्या करने पर यही मत स्थिर होता है जैसे कि-"यह जीव, ब्रह्म है" "यह मात्मा ब्रह्म है" इत्यादि, मैत्रेयो ब्राह्मण भी इसी के अनुरूप माना जायगा। उसका पुर शरीर है, उसका हृदय ही सूक्ष्म कमल है, उसके अन्दर स्थित सक्ष्म जीव ही माकाश है । उस जगह उसी की स्थिति होने से उसी का उल्लेख किया गया है कमल में स्थित उस जीव के अन्वेषण की बात कह कर उसकी महिमा दिखलाई गई है । वासना रूप से सब कुछ वहीं स्थित है। अन्यथोभयत्र सर्वकथनं विरुद्धमापद्यत् । भूतानि महाभूतानि, पुत्रादयो बा, तं चेद् ब्युरित्यादिना नित्यतामुपपाद्य एष प्रात्मेत्यादिना तस्यैव ब्रह्मत्त्वमुपदिशति । तज्ज्ञानं च प्रशंसति स्वात्मज्ञानिनः कामसिद्धि चाह"य इह" इत्यादिना । येऽपि च विरुद्धाः धर्माः प्रतिभान्ति, प्रहरहर्गमनादयस्तेऽपि स्वकल्पित जीवानां स्वप्रभाया मनोरथादिषु तेषामेव गमनागमने प्रति । स्वातिरिक्तस्य ब्रह्मणोऽभावात् । एवं लोकाधारत्वमपि । ब्रह्मचर्यच तस्य साधनिमिति । योगश्चतयोध्यमापन्नममृतत्वमेतीति च, तस्माज्जीव एव दहरः। __यदि उक्त प्रकार से इस प्रकरण को नहीं मानेंगे तो, दोनों ही प्रकरण में कही गई एक ही बात में विरुद्धता होगी। "सं चेद् ब्युः" इत्यादि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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