SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ शंका की जाती है कि-' यस्मिन् द्यौ' इत्यादि वाक्य मे केवल आकाश के विधारण की ही बात कही गई है, उक्त प्रकरण मे भी केवल प्रकाश के विवारण संबंधी प्रश्नोत्तर हैं इसलिए ये जो अक्षर है उसके लिए, आकाश के अतिरिक्त अन्य पृथिवी आदि के विधारण की बात नहीं कही जा सकती, इस प्रसंग में नियामक होने की बात तो कही नहीं गई। इसका समाधान करते हैं कि, इस प्रकरण में भी उसी प्रकार के विधारण की बात ब्राह्मधर्म के रूप में कही गई है, यहाँ नियामक वाची प्रशासन शब्द का उल्लेख किया गया है। हे गार्गि ! इस अक्षर के प्रशासन में ही आकाश और पृथिवी धारित होकर स्थित है" ये जो प्रशासन में विधारण की बात है वह और किसी में नहीं हो सकती । अप्रतिहताज्ञा शक्ति भगवान की ही विशेषता है, इसलिए अक्षर ब्रह्म ही है। अन्यभावव्यावृत्तश्च ।१।३।१२।। .. ननूक्तमुपासनापरं भविष्यतीति, तत्राह-अन्यभावव्यावृत्तेः। अन्यस्य भावोऽन्यभावः । प्रब्रह्मधर्म इति यावत्, तस्यात्र व्यावृत्तेः। अब्रह्मत्वे हि ब्रह्मत्वेनोपासना भवति । कार्यकारण भावभेदेन न ह्यत्र तादृश धर्मोऽस्ति । चकाराद् ‘यो वा एतदक्षरमविदित्वा गागि" इत्यादिना शुद्धब्रह्म प्रतिपादनमेव; नोपासना प्रतिपादनमिति । तस्मादक्षरं ब्रह्म वेति सिद्धम् ।। प्रशासन के हेतु से उक्त वाक्य उपासना परक भी हो सकता है, इस संशय पर "अन्यभावव्यावृत्तेश्व" सूत्र प्रस्तुत करते हैं, अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य की विशेषताओं का इस प्रसंग में स्पष्ट निषेध है । अब्रह्मत्व में भी ब्रह्मत्व की तरह ही उपासना होती है । वह भी कार्य कारण भेद से होता है, परंतु इस प्रसंग में वैसी बात नहीं है । "यो वा एतदक्षरमविदित्वा गागि !" इत्यादि से शुद्ध ब्रह्म का ही प्रतिपादन किया गया है, उपासना का प्रतिपादन नहीं है । इससे, अक्षर ब्रह्म ही है, ऐसा सिद्ध होता है । ४ अधिकरण .ईक्षति कर्म व्यपदेशात् सः॥१॥३॥१३॥ पंचम प्रश्ने- "एतद्वै सत्यकाम परंचापरं च ब्रह्म यदोंकारस्तस्माद् विद्वानेतेनैकतरमस्वेति यद्यकमात्र" इत्यादिना एकद्वित्रिमात्रोपासनया 'ऋग्यजुः सामभिर्मनुष्यलोक सोमलोक सूर्यलोक प्राप्ति पुनरागमने निरूप्यार्थ
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy