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________________ १५२ युक्तम् । न हि ब्रह्मवादः श्रुतिव्यतिरिक्त सिद्धोऽस्ति येन ब्रह्मधर्मा भावो निश्चितुं शक्येत । तस्मात् सर्वाधारत्वेन निरूप्यमाणः परमात्मैव न प्रधानमिति । प्रकृति श्रायतन नहीं हो सकती, अनुमान कभी अनुमापक नहीं हो सकता । उक्त प्रकरण में कोई एक भी शब्द, असंदिग्ध रूप से सांख्य मत का ख्यापक नहीं है । ब्रह्मवाद के ख्यापक के तो अनेक शब्द हैं, जैसे कि, आत्मा, सर्वज्ञ, आनंद आदि शब्द । इसलिए जडता वाची अनेक संदिग्ध शब्द भी, ब्रह्म धर्म ही हैं, ऐसा निश्चित होता है । ब्रह्मवाद, श्रुति के अतिरिक्त किसी श्रौर से तो सिद्ध होता नहीं, जिससे कि, ब्रह्मधर्माभाव की बात निश्चित की जा सके। इससे निश्चित होता है कि, सर्वाधार रूप से निरूपित परमात्मा ही है. प्रधान नहीं । प्राणमृच्च |१|३|४: नन्वस्ति निर्णायकं प्रारणानामोतत्ववचनम् । " मनोययः प्राण शरीर नेतेति च । श्रतो जीव धर्माः सेचन, जडधर्माचापरे, सर्वज्ञत्वादयोऽपि योग प्रभावाज्जीव धर्मा इति । तस्माज्जड जीव विशिष्ट: सांख्यवाद एव युक्त इति चेत् उक्त प्रकरण में - "मनोमयः प्रारण शरीर" आदि वाक्य निर्णायक है । इसमें कुछ शब्द तो जैव धर्म बोधक हैं, कुछ जड धर्म बोधक हैं, सर्वज्ञ आदि जो शब्द है वे, योग के प्रभाव से जीव के विशेषण भी हो सकते हैं । इसलिए जड जीव से विशिष्ट सांख्य सम्मत तत्त्व ही उक्त प्रकरण का वर्ण्य निश्चित होता है । प्राणभृज्जीवो न संभवति, अतच्छन्दादेव, नह्यानंदामृतरूपः स भवितुमर्हति तन्मते । पृथग्योगकरणमुत्तरार्थम् । प्राणों का धारक जीव नहीं हो सकता, एक भी शब्द इसका प्रमाणक नहीं है । सांख्यमत में जीव श्रानंद और अमृत रूप भी नहीं हो सकता । भेदव्यपदेशात् । १।३।५।। विशेष हेतुमाह - 'तमवैकं जानथ" इति कर्म कर्त्त भावः प्रतीयते श्रतो भेदव्यपदेशान्न प्रारणभृज्जीवः ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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