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________________ प्रथम अध्याय द्वितीय पाद सर्वत्र प्रसिद्धोपदेशात् ।१।२।१॥ समन्वये प्रथमेऽध्याये सर्वेषां वेदान्तानां ब्रह्मणि समन्वयोवक्तव्यः । तत्रोद्गीथाद्य पासनावाक्यानां मुख्यवाक्येषु फलोपकार्यङ्गत्वम् । ब्रह्म वाक्यानां निःसदिग्धानां समन्वयः स्वतः सिद्धः । संदिग्धानि द्विविधानि शब्दतोऽर्थतोवा । ब्रह्मरिण व्यवहारोऽस्ति कश्चिन्नवेति । तत्र प्रथम सूत्र व्यवहारः स्थापितः । "यतो वाचो निवर्तन्ते" इत्यादीनां विशेषेणेदमित्थतया निरूपण निषेधपरत्वम् । एवमेव कार्यसिद्धः । अधीतानां ब्रह्मवाक्यानां चतुर्लक्षण्या ब्रह्मपरत्वे सिद्ध श्रवणं सिद्ध्यति । श्रुतस्यकालान्तरेऽप्यसंभावनाविपरीतभावनानिवृत्यर्थ पूर्वस्थितानामंगानामनपेक्षितानामुदवापेनान्येषामपेक्षितानामावापेन तस्यैवार्थस्य निर्धारणेमननं भवति । ___ समन्वय के निर्धारक प्रथम अध्याय में समस्त वेदांत वाक्यों का ब्रह्म में ही समन्वय दिखलाया गया है। तथा उद्गीथ आदि उपासनाओं के समर्थक वाक्यों की मुख्यब्रह्म परक वाक्यों में फलोपकार्यता बतलाई गई है । असंदिग्ध ब्रह्म निरूपक वाक्यों का समन्वय तो स्वतः सिद्ध है। संदिग्ध वाक्य दो प्रकार के हैं, शब्द संबंधी और अर्थ संबंधी। अब प्रश्न होता है कि इन संदिग्ध वाक्यों का ब्रह्म में व्यवहार संभव है या नहीं ? सो प्रथम सूत्र में ही व्यवहार की संभावना का निरूपण कर चुके हैं। “यतोवाचो निवर्तन्ते" इत्यादि वाक्यों में "यह ऐसा है" इत्यादि निश्चयात्मक निरूपण का ही निषेध किया गया है। इसी प्रकार श्रवण आदि कार्य सिद्धि परक "आत्मा वारे" आदि वाक्यों का भी निरूपण है। चार प्रकार के अधीत ब्रह्मवाक्यों की ब्रह्मपरता सिद्ध हो जाने पर श्रवण तो स्वयं ही सिद्ध हो जाती है। श्रुतवाक्यों की कालान्तर में असंभावना और विपरीत भावना की निवृत्ति के . लिए, पूर्वस्थित अनपेक्षित अंगों के उद्वाप तथा अन्य अपेक्षित अंगों के पावाप से उसी अर्थ का निर्धारण होने निश्चित मनन होता है ।
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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