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________________ ( १५ ) जिस लेखनी से लिख रहा हूँ वह मात्र लेखिनी है उसे अपने अस्तित्व की कोई प्रतीति नहीं, वह प्रतीत तो हमें ही होती है अतः लेखिनी केवल सत् है । हमें अपने अस्तित्व की प्रतीति है अतः हम सच्चित् हैं, किन्तु हमारे अस्तित्व में देश काल की सीमायें हैं ये सीमायें ही द्वत भाव लाती हैं अथवा यों कहें कि ये ब्रह्म की द्वतवादी इच्छा की परिणति हैं, फलतः हमारी चेतना प्रिय-अप्रिय सुख-दुखः, संघर्ष-शान्ति, राग-द्वेष के द्वैतों से आवृत हो जाती है । देशकालातीत चेतना में इन द्वन्द्वों की उपस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जैसा कि उपनिषद् में कहते हैं "तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः" (ईशो० ७) वस्तुतः एकत्व दर्शन नहीं 'अनुदर्शन' होता है। "अनुदर्शन" बहुत उचित महत्वपूर्ण प्रयोग है जैसे कि कही हुई बात को किसी दूसरे शब्दों में कहना 'अनुवाद' है। ऐसे ही श्री मध्वाचार्य द्वारा प्रस्तुत पञ्चद्वैतात्मक वास्तविक दृश्मान जगत में, ब्रह्म को द्वैतवादी इच्छा के परिणाम स्वरूप तटित होता है, तथा एक 'सच्चिदानन्द' के प्रत्यय के बलपर 'एकत्व' अनुदर्शन करना शोकमोहातीत चेतना का प्रारम्भ आनन्द है, उसीकी चरम परिणिति, ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री ज्ञान, वैराग के बोधक भगवान, पदद्वारा अभिहित होती है । यह ब्रह्म की साकारता, सगुणता, एवं सधर्मकता की स्थिति है । जहाँ अव्यक्त ब्यक्तिभावापन्न होता है, इस परमतत्त्व को केवल व्यक्ति भावापन्न समझना मूढ़ता है अथवा केवल अव्यक्त मानना भी अन्यथा प्रतिपत्ति है। किन्तु विरुद्ध धर्माश्रय होने के कारण दोनों ही रूप में स्वीकारना धीरता है--''अजाभमानो बहुधा विजायते तस्य धीराः परिजना न्ति योनिम" (यजु० सं० ३१।१६) 'तस्मादानन्दांशस्यैवायं धर्मोंयत्र स्वाभिव्यक्तिस्तत्र विरुद्ध सर्वधर्माश्रयत्वम्' (अणु० भा० १।२।३२) अर्थात् चेतना जब आनन्द के अनन्त आयाम में पहुँच जाती है तो तार्किक विरोध, यथा साकार या निराकार होने का, सधर्मक या निर्धर्मक होने का अथवा सगुण या निगुण होने का दावा नहीं कर सकता, वह तो व्यापक, अव्यापक, देशकालातीत, देशकालामिव्यक्त, ज्ञेय, अज्ञय सभी कुछ है । श्री वल्लभाचार्य जी कहते हैं- "अण्व पे ब्रह्म व्यापकं भवति, यथा कृष्णो यशोदा क्रोडे स्थितोऽपि सर्वजगदाधारो भवति" (शा० नि० ५४.) ____ अर्थात्-ब्रह्म अणु होते हुए भी व्यापक बना रहता है कृष्ण चाहे यशोदा की गोद में ही क्यों नहीं सम्पूर्ण जगत के आधार हैं"
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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