SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ पादों का वर्णन तो प्रौपचारिक ही है, इनसे प्रणव आदि विद्या का भी निरूपण समझना चाहिए। छन्दोविधानान्नेति चेन्न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथाहि दर्शनम् १।१।२४।। ननु नात्र ब्रह्म चतुष्पानिरूपितं, किन्तु गायत्री छंदः “गायत्री वा इदं सवं यदिदं किंच" इत्युपक्रम्य तामेव भूत पृथिवी शरीर हृदय भेदैर्व्याख्याय सैषा चतुष्पदा षड्विधा गायत्री तदेतदृचाभ्युक्तम् “तावानस्य महिमा" इति । तस्यामेव व्याख्यानरूगयां गायत्र्यामुदाहृतो मंत्रः कथमकस्माद् ब्रह्म चतुष्पादभिदध्यात् । “यद् वैतद् ब्रह्म" इति ब्रह्मपदमपि छन्दसः प्रकृतत्वात् तत्परमेवावगंतव्यम् । शब्दस्यापि ब्रह्मवाचकत्वसिद्धेब्रह्मोपनिषदितिवच्छब्दब्रह्मति च । तस्माच्छन्दस एव पादाभिधानान्न ब्रह्मधर्माः पादा इति चेन्नैष दोषः, तथा चेतोऽर्पणनिगदात्, तथा तेन द्वारेण चेतसोऽर्पणं निगद्यते गायत्री वा इदं सर्वं यदिदं किंच" इति । नहि वर्णसमाम्नायरूपस्य सर्वत्वमनुपचारेण सम्भवति । यथा सूची द्वारा सूत्र प्रवेशस्तथा गायत्री द्वारा बुद्धि : तत्प्रतिपाद्य ब्रह्मरिण प्रविशेदिति । ___ कुत एतदेवं प्रतिपाद्यत इति, तत्राह तथाहि दर्शनम् तथा तेनैव प्रकारेण दर्शनं ज्ञानं भवति । स्थूला बुद्धिार्हत्येव ब्रह्मणि प्रविशेदिति । एतेन सर्वा मंत्रोपासना व्याख्याताः । हियुक्तश्चायमर्थों लोके स्वतो यन्न प्रविशति तदुपायेन विशतीति । नत्वदृष्ट द्वारा, दृष्टे सम्भवत्यदृष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वात्, तस्मात् पादा ब्रह्मधर्माः । . शंका की जाती है कि यहां ब्रह्म का चार चरणों के रूप में निरूपण नहीं है अपितु गायत्री छन्द का है, जैसा कि-"यहां जो कुछ भी है वह गायत्री ही है" ऐसा उपक्रम करके उसी की भूत, पृथिवी, शरीर और हृदय के भेद से व्याख्या करके वही चार पाद वाली छः प्रकार की है यह बात "तावानस्य महिमा" इत्यादि में बतलाई गई है। उसी व्याख्यान रूप गायत्री के लिए उक्त मन्त्र प्रस्तुत किया गया है, अकस्मात् ब्रह्म को चार पाद वाला कैसे समझ लिया गया ? “यद् वैतद् ब्रह्म' इत्यादि में जो ब्रह्म के पादों का उल्लेख है वह भी छन्द में घटित होने से, छन्द परक ही सिद्ध होता है। यह कहें किब्रह्म शब्द का स्पष्ट उल्लेख है, सो ब्रह्म शब्द शास्त्रवाचक भी है, जैसे. कि
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy