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________________ ८१ उन गुणों का प्रमाण मिलता है। समस्त रस आदि धर्म ब्रह्म निष्ठ ही हैं, जिन स्थूलता आदि का ब्रह्म में न होना कहा गया है, वे सब "अस्थूल अनणु अह्नस्व" इत्यादि वाक्यों में ब्रह्म के कार्य धर्म रूप से बतलाये गए हैं । अणोरणीयान् इत्यादि कारण धर्म ही हैं। यदि किसी वस्तु में एक भी कोई अलौकिक धर्म दृष्टिगत हो तो उस वस्तु को ब्रह्म ही मानना चाहिये, उस वस्तु के अवशिष्ट संदिग्ध धर्मों को भी उस ब्रह्म के ही मानना चाहिये । श्रुति के इस अभिप्राय को मानकर ही सूत्रकार हर जगह ब्रह्मवाक्यों का निर्णय करते हैं तथा श्रुति के अतिरिक्त स्वयं भी जब विचार प्रस्तुत करते हैं तो भी उसी प्रकार का निर्णय करते हैं। "अनंतम्" पद से परमात्मा की अनंत मूर्तिता ज्ञात होती है, यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो उन्हें जीव मात्र की अन्तर्गुहा में विद्यमान कैसे कह सकेंगे? इसलिए ब्रह्म साकार होने पर लौकिक रूप में ही रहता है, यही मानना चाहिए। ब्रह्मणः शरीरमिति तु सर्वथा असंगतम्, सर्वक ब्रह्मणः का वा अनुपपत्तिः स्यात् येन स्वस्यापि शरीरं कल्पयेत्, किंतु लीलया व्यामोहनार्थमन्यथा भासयेन्नटवत् । तस्मात् वेदातिरिक्तऽप्युपपत्तिपूर्वकं यत्र ब्रह्मधर्मस्तद् ब्रह्मति मंतव्यम् । ब्रह्म तु वेदैक समधिगभ्यं, यादृशं वेदे प्रतिपाद्यते तादृशमेवेत्यसकृदवोचाम । प्रकृतेऽपि हिरण्मय इत्यत्र यकारलोपश्छांदसः, "अतो न द यच् । हिरण्यशब्द, आनंदवाची, लोकेऽपि तस्यानंद साधकत्वात् अतः केशादयाऽपि सर्वे आनंदमया एव, तादृशमेव ब्रह्मस्वरूपं मंतव्यम्, अत एव ध्येयः सदा सवितृमंडल, मध्यवर्ती नारायणः सरसिजासन, सन्निविष्टः । केयूरवान् मकरकुंडलवान् किरीटी हारी हिरण्मयवपुर्धतशंख चक्रः ॥ इत्यत्रापि वपुः स्वरूपम् । “माया घोषा मया सृष्टा" इत्यादि भगवद्वाक्यं भगवन्मायया भगवन्तमन्यथा पश्यंति इत्याह, न तु भगवान् एव मायिक इति । शरीरे सति जीवत्वमेवेति निश्चयः । अतो ब्रह्म-धर्मोपदेशात सूर्यमण्डलस्थः परमात्मैव । ब्रह्म का शरीर होता है, यह कथन तो सर्वथा असंगत है, समस्त वस्तुओं के निर्माता ब्रह्म को क्या कमी है जो वे अपने शरीर की भी कल्पना करें, किन्तु लीला से संसार को व्यामोहित करने के लिए नट की तरह रूप धारण करते हैं । वेदों में वर्णित ब्रह्म संबंधी गुणों की जहाँ भी प्राप्ति हो वहां ब्रह्म
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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