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प्रानन्दमय की ब्रह्मत कहना शक्य नहीं है, क्योंकि भयट् प्रत्यय प्रायः विकाराधिकार में ही प्रयोग किया जाता है, ऐसी आशंका करते हुए स्वयं सूत्रकार उसका परिहार करते हैंविकारशब्दान्नेति चेन्न प्राचुर्यात् ।१।१।१२॥
अनेनैव पूर्वसूत्रार्थो सिद्धो भविष्यति । विकारवाची मयट् प्रत्ययो यस्मिस्तद् विकारशब्दं तस्मात्तच्छन्दवाच्यं ब्रह्म न भवति । ब्रह्मणो अविकारित्वादिति चेत् । नात्र विकारे मयट्, किन्तु प्राचुर्यात् । प्राचुर्यमतति प्राप्नोतीति प्राचुर्यात् तथा च पाणिनिः, तत्प्रकृतवचने मयट, प्राचुर्येण प्रस्तुतं वचनं तत्प्रकृतवचनं, तस्मिन् मयः प्रत्ययो भवतीत्यर्थःप्राचुर्येण पूर्वापेक्षयाऽप्याधिक्येन “को ह्यवान्यात् कः प्राण्यात्" इतिवाक्ये प्रकर्षेण स्तुतं अतो मयट् पूर्वापेक्षया प्राचुर्यमयते एक देश निर्देशेन तदर्थलक्षणया प्राचुर्यः । प्राचुर्येण प्रस्तुतार्थवाचकत्वादित्यर्थ इति वा । छन्दसि व्यज्व्यतिरिक्त स्थले मयटो विकारे विधानाभावाद् व्याकरणमप्यर्थनिर्णायकम् । विज्ञानमयानन्दमय शब्दौ पश्यन्नपि पाणिनिमयड् वैतयोर्भाषायां द्वयचच्छंदसीति कथमवोचत् । अत्र केचित् सर्वविप्लववादिनो विकारार्थत्वं वदंति श्रुतिसूत्रादीनामर्थाज्ञानात्, तद् वेदाद्यर्थ विभिभगवतो नवमावतार कार्यज्ञात्वोपेक्ष्यम् । योऽर्थस्तमवोचाम् ।
इस सूत्र से ही, पूर्व सूत्र का अर्थ प्रस्फुटित होगा । विकारवाची मयट प्रत्यय जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है, वह विकृत अथं ब्रह्म से सम्भव नहीं है, अतः ब्रह्म के लिए प्रयुक्त मयट् प्रत्यय विकारार्थक नहीं है, ब्रह्म की अविकारता प्रसिद्ध है। उक्त प्रसंग का मयट प्रत्यय प्राचुर्यार्थक है, प्रचुरता को प्राप्त करने वाले को प्राचुर्य कहते हैं "तत्प्रकृतवचने मयट" पाणिनि सूत्र प्राचुर्यार्थक मयट् का सयर्थन करता है । प्रचुरता से जो वचन प्रस्तुत किया जाय उसे प्रकृत वचन कहते हैं, उसमें ही मयट् प्रत्यय होता है। पूर्व की अपेक्षा अधिक होने को ही प्राचुर्य कहते हैं । “को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात ?" इत्यादि में प्रकष रूप से प्रस्तुत किया गया है। पूर्व पर की तुल्यता में, पर की विशेषता का निर्देश करने वाला प्राचुर्य होता है अर्थात् प्राचुर्य प्रस्तुतार्थवाचक होता है । वेद में द्वयच (दो अच वाले) स्थल के अतिरिक्त मयट् प्रत्यय का विकार अर्थ में विधान नहीं है । विज्ञानमय आनन्दमय शब्द में देखते हुए भी पाणिनि "मयट् वैतयोर्भाषायाम्" और