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________________ ४१ म्, संकेतग्रहस्तु वैदिक एव वेदविद्भिः कृतः । श्राकृतिमात्रार्थं लोकापेक्षा अनधिगतार्थगं च प्रमाणं, लोकानधिगत इत्यर्थः । यज्ञब्रह्मणो रलौकिकत्वं सिद्धमेव । लौकिको व्यवहारः सन्निपात रूपत्वात् पुरुषार्थासाधक एव, तर्हि शब्दमात्रस्य कथं ग्रहणम् ? वेदव्याख्यातृ वाग्विषयत्वादिति ब्रूमः । एतेन मनसैवानुद्रष्टव्यमित्यपि समर्थितम् । तस्मात् सृष्ट्यादिप्रतिपादका अपि वेदांताः साक्षात् ब्रह्मप्रतिपादका इति सिद्धम् । क्या उक्त कथन यथार्थ है ? हाँ नितान्त ठीक है, ब्रह्म ने समस्त व्यवहारों और प्रमाणों से प्रतीत होते हुए भी सृष्टि द्वारा व्यवहार्य होने का संकल्प किया, जैसे- जैसे व्यवहार्य होता गया, वैसा उसने स्वयं कहा (अर्थात् उसकी कथनी और करनी एक है, उसने अपने अंश रूप जीव और उसके उपयोगी पुरुषार्थी की सिद्धि के लिए सर्वप्रथम प्रजा प्रादि शब्दवाच्य शरीर और बाद में फल रूप लोकों की सृष्टि की । इस प्रकार प्रमाणों का अविषय होते हुए भी वह स्वयं स्वेच्छा से विषय हुआ । (वादी) समस्त प्रमारणों से जिसकी विषयता प्रसिद्ध है, केवल वेद से ही ज्ञात है, उसके आधार पर कैसे सिद्धान्त स्थिर किया जा सकता है ? ( प्रतिवाद) नेत्र आदि की प्रामाणिकता श्रन्यमुखापेक्षी होती है, स्वतंत्र नहीं, - इसीलिए उनसे प्रायः भ्रम हो जाता है, मनोयोग समन्वित होने पर ही उनकी प्रामाणिकता होती है, किन्तु वेद निरपेक्ष प्रमारण हैं, वे भगवान के निःश्वास हैं अतः अकाट्य प्रमाण हैं । वेद के वेत्ताओं ने ब्रह्म की ईक्षा के विषय में जो सिद्धान्त स्थिर किया है वह मनमाना नहीं है, उसकी प्रेरणा भी उन्हें भगवत्कृपा से वेदों से ही मिली है (अर्थात् शुद्धांतःकरण उपासक ऋषियों को वैदिक रहस्यों का श्रौत साक्षात् हुआ है) वेदोक्त सृष्टि के लोक परस्पर अपेक्षित प्रतीत । दृष्टिगोचर होने से ही ऋषियों को लोक और वेद होते हैं । इस प्रकार उन मनीषियों ने लोक और वेद दोनों के सामंजस्य से सृष्टि सम्बन्धी ब्रह्म की ईक्षा को प्रमाणित किया है। उनकी दृष्टि केवल लौकिक हीं नहीं थी । यज्ञ श्रौर ब्रह्म दोनों ही अलौकिक हैं, ये दोनों ही उन्हें दृष्टिगत थे । (वादी) लौकिक व्यवहार ( सुख दुःख से) मिश्रित होने से मोक्ष साधक तो हो नहीं सकता और यदि सूत्रकार को ब्रह्म की वैदिक व्यवहार विषयता ही अभिप्रेत थी, तो उन्होंने सूत्र में सामान्यतः "शब्द" का क्यों ग्रहण किया ? ( प्रतिवाद) सूत्रकार को वेद व्याख्याताओं की वाणी भी
SR No.010491
Book TitleShrimad Vallabh Vedanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVallabhacharya
PublisherNimbarkacharya Pith Prayag
Publication Year1980
Total Pages734
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith, Hinduism, R000, & R001
File Size57 MB
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