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ऐतिहासिक इतिवृत्त
श्रवणबेलगोल का इतिहास ईसा से ३०० वर्ष पूर्व उस समय प्रारम्भ होता है जब त्रैकाल्यदर्शी, निमित्तज्ञानी, अतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने उज्जयिनी मे १२ वर्ष के दुर्भिक्ष की आशका से अपने १२००० शिष्यो सहित उत्तरापथ से दक्षिणापथ को प्रस्थान किया । उनका संघ क्रमश एक बहुत समृद्धियुक्त जनपद में पहुंचा । चन्द्रगुप्त भी उनके साथ थे । यहा आकर उनको विदित हुआ कि उनकी आयु अब वहुत थोडी शेष है । उन्होने विशाखाचार्य को सघ का नायक बना कर उन्हे चौल और पाडयदेश भेज दिया । भद्रबाहु स्वय सल्लेखना ( समाधिमरण ) धारण करने के लिए पास वाले चद्रगिरि पर्वत पर चले गए, जिसको कटवप्र भी कहते है । नवदीक्षित चन्द्रगुप्त मुनि अपने गुरु की वैय्यावृत्ति के लिए वही रहे । चन्द्रगुप्त मुनि ने अन्त समय तक उनकी खूब सेवा की तथा उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् १२ वर्ष तक उनके चरण-चिह्न की पूजा में अपना शेष जीवन व्यतीत कर उन्ही के पथ का अनुसरण किया । इसी पहाडी पर प्राचीनतम मंदिर चन्द्रगुप्त वस्तिका है । यही पर भद्रबाहु गुफा मे चन्द्रगुप्त के चरण-चिह्न है । इसी स्थान पर ७०० जैन श्रमणो ने समाधिमरण किया । इसलिए इसका नाम श्रवणबेलगोल पडा ।
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