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के दूसरे शिलालेख के अनुसार विजयनगर के नरेश कृष्णदेवराय सन् १५१० से १५२६ की जैनवर्म के प्रति सहिष्णुता रही गौर उसने जैन मदिरो को दान दिया। विजयनगर के रामराय तक सभी गामको ने जैन मदिरो को दान दिये और उनकी जैनधर्म के प्रति आस्था रही।
विजयनगर के शासको का और उनके अधीन सरदारो का, और मैसूर राज्य का गाजतक जैनधर्म के प्रति यही दृष्टिकोण रहा है। कारकल के शासक गरसोप्पा गौर भैरव भी जैनधर्मानुयायी थे और उन्होने भी जनकला को प्रदर्शित करनेवाले अनेक कार्य किये।
अव प्रश्न यह है कि जैनधर्म की देशना क्या है ? अथवा श्रवणवेल्गोल और अन्य स्यानो की वाहुवली की विशाल मूर्तियो एव अन्य चौवीस तीर्थकरो की प्रतिमाएँ ससार को क्या सन्देश देती हैं ? ___ जिन शब्द का अर्थ विकारो को जीतना है। जैनधर्म के प्रवर्तको ने मनुष्य को सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् बोध, सम्यक् ज्ञान और निर्दोप चारित्र के द्वारा परमात्मा बनने का आदर्श उपस्थित किया है। जैनधर्म का ईश्वर मे पूर्ण विश्वास है और जैनधर्म के अनुष्ठान द्वारा अनेक जीव परमात्मा वने है। जैनधर्म के अतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के धर्म का २५०० वर्षों का एक लम्बा इतिहास है। यह धर्म भारत में एक कोने से दूसरे कोने तक रहा है। याज भी गुजरात, मथुरा, राजस्थान, विहार, वगाल, उडीसा, दक्षिण मैसूर और दक्षिण भारत इसके प्रचार के केन्द्र है । इस धर्म के साधु और विद्वानों ने इस धर्म को समुज्ज्वल किया और जैन व्यापारियो ने भारत में सर्वत्र सहस्रो मदिर बनवाये, जो आज भारत की धार्मिक पुरातत्व कला की अनुपम शोभा है।
भगवान महावीर और उनसे पूर्व के तीर्थंकरो ने बुद्ध की तरह भारत मे वताया कि मोक्ष का मार्ग कोरे क्रियाकाण्ड मे नही है, बल्कि वह प्रेम और विवेक पर निर्धारित है। महावीर और बुद्ध का अवतार एक ऐसे समय में हुना है जब भारत में भारी राजनैतिक उथल-पुथल हो रही थी। महावीर ने एक ऐसी साधु-सस्था का निर्माण किया, जिसकी भित्ति पूर्ण अहिंसा