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रानी शान्तलादेवी जैनाचार्य प्रभाचन्द्र की शिष्या घी और विष्णुवर्द्धन के मत्री गगराज और हुल्ला ने जैनधर्म का वहुत प्रचार किया । अत इसमें कोई सन्देह नही है कि पहले के होय्यसल नरेश जैन थे । विष्णुवर्द्धन अपरनाम 'विट्टी' रामानुजाचार्य के प्रभाव में आकर वैष्णव हो गये । विट्टी वैष्णव होने से पहले कट्टर जैन था और वैष्णव शास्त्रो में उसका वैष्णव हो जाना एक आश्चर्यजनक घटना कही जाती है । इस कहावत पर विश्वास नही किया जाता कि उसने रामानुज की आज्ञा से जैनों को सन्ताप दिया, क्योकि उसकी रानी शान्तलादेवी जैन रही और विष्णुवर्द्धन की अनुमति से जैन मंदिरो को दान देती रही । विष्णुवर्द्धन के मंत्री गगराज की सेवाए जैनधर्म के लिए प्रख्यात है । विष्णुवर्द्धन ने वैष्णव हो जाने के पश्चात् स्वय जैन मंदिरो को दान दिया, उनकी मरम्मत कराई और उनकी मूर्तियो और पुजारियो की रक्षा की। विष्णुवर्द्धन के सम्वन्ध में यह कहा जा सकता है कि उस समय प्रजा को धर्म सेवन की स्वतंत्रता थी । विष्णुवर्द्धन के उत्तराधिकारी यद्यपि वैष्णव थे तो भी उन्होंने जैन मंदिर बनाये और जैनाचार्यों की रक्षा की । उदाहरण के तौर पर नरसिंह ( प्रथम ) राज्यकाल ११४३ से ११७३, वीरवल्लभ (द्वितीय) राज्यकाल ११७३ से १२२० और नरसिंह (तृतीय) राज्यकाल १२५४ से १२९१ ।
विजयनगर के राजाओ की जैनधर्म के प्रति भारी सहिष्णुता रही है । अत वे भी जैन धर्म के सरक्षक थे । वुक्का ( प्रथम ) राज्यकाल १३५७ से १३७८ ने अपने समय में जैनो ओर वैष्णवो का समझौता कराया । इससे यह सिद्ध है कि विजयनगर के राजाओ की जैनधर्म पर अनुकपा रही है। देवराय प्रथम की रानी विम्मादेवी जैनाचार्य अभिनवचारुकीति पडिताचार्य की शिष्या रही है और उसीने श्रवणबेलगोल में शातिनाय की मूर्ति स्थापित कराई ।
वुक्का (द्वितीय) राज्यकाल १३८५ से १४०६ के सेनापति इरुगुप्पा ने एक साची के शिलालेखानुसार सन् १३८५ ईस्वी में जिनकाची में १७ वें तीयंकर भगवान् कुन्यनाथ का मंदिर और सगीतालय बनवाया । इसी मदिर