________________
बाहुबलि-स्तवन
आदेश पा भरतेश का तब भृत्य सिधारा । । लेकर के चक्रवर्ती की आज्ञा का कुठारा ॥
वाचाल था, विद्वान, चतुर था, प्रचण्ड था ।
चक्री के दूत होने का उसको घमण्ड था ॥ बोला कि-'चक्रति को जा शीश झुकाओ ।। या रखते हो कुछ दम तो फिर मैदान में आओ। मैं कह रहा हूँ उसको शीघ ध्यान में लाओ। स्वामी की शरण जाओ, या वीरत्व दिखाओ ।' सुनते रहे वाहूवली गंभीर हो वानी
फिर कहने लगे दूत से वे आत्म-कहानी ॥ 'रे, दूत ! अहंकार में खुद को न डुबा तू ।। स्वामी की विभव देख कर मत गर्व में आ तू ॥ वाणी को और बुद्धि को कुछ होश में ला तू । इन्सान के जामे को न हैवान बना तू ॥ सेवक की नहीं जैसी कि स्वामी की जिन्दगी ।
क्या चीज है दुनिया में गुलामी को जिन्दगी ॥ स्वामी के इशारे पै जिसे नाचना पड़ता। ताज्जुब है कि वह शख्स भी, है कैसे अकड़ता ? मुर्दा हुई-सी रूह में है जोश न दृढ़ता । ठोकर भी खा के स्वामी के पैरो को पकड़ता ॥
वह आ के महकार की आवाज़ में बोले ।
___अचरज की बात है कि लाश पुतलिया खोले।' सुनकर ये, राजदूत का चेहरा बिगड गया । उपचाप खडा रह गया, लज्जा से गड गया ॥ दिल से गरूर मिट गया, पैरों में पड़ गया ।
हैवानियत का डेरा ही गोया उखड़ गया ।