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संस्कृत के जन वैयाकरण एक मूल्याकन ४६ काशिका २।११४५ मे यह श्लोक किन्ही प्रतियो मे प्रक्षिप्त और किन्ही मे भूल के अन्तर्गत माना गया है, किन्तु महावृत्ति से सिद्ध हो जाता है कि वह काशिका के मूल पाठ का भाग था। श्लोक के उत्तरार्द्ध मे जो 'दिवानृत्त रानी नृत्त' पा० है उसका समर्थन महाभारत की कुछ प्रतियो से होता है पर कुछ अन्य प्रतियो मे 'वृत्त' पाठ है जैसा कि काशिका मे और महाभारत के पूना सस्करण मे भी स्वीकार किया गया है । आचार्य अभयनन्दी ने अपनी महावृत्ति को जिस प्रकार पाणिनीय व्याकरण की पुष्कल सामग्री से भर दिया है, वह सर्वथा अभिनन्दन के योग्य है। आशा है जिस समय का शिकावृत्ति, अभयनन्दीकृत महावृत्ति और शाकटायन व्याकरण की अमोधवृत्ति इन तीनो का तुलनात्मक अध्ययन करना सम्भव होगा तो यह बात और भी स्पष्ट रूप से जानी जा सकेगी कि प्रत्येक वृत्तिकार ने परम्परा से प्राप्त सामग्री की कितनी अधिक रक्षा अपने-अपने ग्रन्य मे की थी। यह सन्तोष का विषय है कि इन कृतियो ने सावधानी के साथ प्राचीन सामग्री को बचा लिया।
आचार्य देवनन्दी ने पाणिनीय अष्टाध्यायी को आधार मानकर उसे पचाध्यायी मे परिवर्तन करते समय दो बातो की ओर विशेष ध्यान रखा था- एक तो धातु प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्थ महासज्ञाओ को भी जिनके कारण पाणिनीय अष्टाध्यायी व्याकरण मे इतनी स्पष्टता और स्वारस्य आ सका था, इन्होने बीजगणित के जैसे अतिसक्षिप्त सकेतो मे बदल दिया है। दूसरे जितने स्वर सम्बन्धी और वैदिक प्रयोग सम्बन्धी सूत्र थे उनको आ० देवनन्दी ने छोड दिया है। किन्तु ऐसा करते हुए उन्होने उदारता से काम लिया है, जैसे आनाय्य, धाय्या, सानाच्य, कुण्डपाय्य, परिचाय, उपचाय्य, (२।१।१०४-१०५), ग्रावस्तुत् (२।२।१५६) आदि वैदिक साहित्य मे प्रयुक्त होने वाले शब्दो को रख लिया है। इसी प्रकार सास्य देवता प्रकरण (३।२।२१-२८) मे शुक्र अपोनप्त, महेन्द्र, सोम, द्यावापृथिवी, शुनासीर, मरुत्वत्, अग्नीपोम, वास्तोस्पति, गृहमेध आदि गृह्यसूत्र कालीन देवताओ के नातो को पाणिनीय प्रकरण के अनुसार ही रहने दिया है। प्रत्येक मे आने वाले फ, ढ, ख, छ, घ, और यु, वु, एवं उनके स्थान मे होने वाले आदेशो को भी ज्यो का त्यो रहने दिया है। (५।११, ५।१।२) । तेन प्रोक्तम्' प्रकरण (३।३।७६-८०) मे वैदिक शाखाबो और ब्राह्मण अन्यो के नाम भी ज्यो के त्यो जैनेन्द्र व्याकरण मे स्वीकृत कर लिये गए है । कही-कही जैनेन्द्र ने उन परिभाषाओ को स्वीकार किया जो प्राक्पाणिनीय व्याकरणो मे मान्य थी और जिनका उल्लेख भाष्य या वातिको मे आया है। उदाहरण के लिए जनेन्द्र सून १।३।१०५ मे उत्तरपद की धुसना मानी गयी है । पतजलि के महाभाष्य मे सूत्र ७।३।३ पर श्लोकवातिक मे द्यु पा० है और वहाँ किमिद घोरिति उत्तरपदस्थति' लिखा है। सूत्र ७।१२१ के भाष्य मे अघु को अनुत्तरपद क्ता पर्याय माना है पर कोलहान