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संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्याकन
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और वैदिक प्रकरणो को अपने युग के लिए आवश्यक न जानकर उन्होने छोड दिया था। जैनेन्द्र व्याकरण के कर्ता ने पाणिनीय गणपाठ की बहुत सावधानी से रक्षा की थी । मूल व्याकरण मे पाणिनि के गणसूत्रो को प्राय स्वीकार किया गया है । यद्यपि वैदिक शाखाओ वाले और गोत्र सम्बन्धी गणो से सिद्ध होने वाले नामो का जैन साहित्य के लिए उतना उपयोग न था, किन्तु जिस समय इस व्याकरण की रचना हुई उस समय भाषा के विषय मे लोक की चेतना अत्यन्त स्वच्छ और उदार भाव से युक्त थी, अतएव जैनेन्द्र व्याकरण की प्रवृत्ति पाणिनि सामग्री के निराकरण मे नही वरन् उसके अधिक से अधिक मरक्षण मे देखी जाती है। जैनेन्द्र व्याकरण के साथ उसका अलग गणपाठ किसी समय अवश्य ही रहा होगा, यद्यपि अव वह पृथक् रूप से उपलब्ध न होकर अभयनन्दी कृत महावृत्ति के अन्तर्गत ही सुरक्षित है । कात्यायन के वार्तिक और पतजलि के भाष्य की दृष्टियों मे जो नये नये रूप सिद्ध किये गये थे उन्हें देवनन्दी ने सुत्रो मे अपना लिया है, इसलिए भी यह व्याकरण अपने समय मे विशेष लोकप्रिय हुआ होगा । यह प्रवृत्ति काशिका मे भी किसी अश मे आ गई थी और चन्द्र आदि व्याकरणो मे भी बराबर पाई जाती है ।
आचार्य अमयनन्दी की महावृत्ति लगभग काशिका के समान ही वृहत् ग्रन्य है । इसके कर्ता ने कात्यायन के वार्तिक और पतजलि के भाष्य से बहुत अधिक उपादेय सामग्री का अपने ग्रन्थ मे मकलन कर लिया है । महावृत्ति का काल आठवी शताब्दी का प्रारम्भ माना जाता है और सम्भावना ऐसी है कि अभयनन्दी ने काशिकावृत्ति का उपयोग किया था । वस्तुत किसी भी पाठक से यह तथ्य छिपा नही रह सकता कि अष्टाध्यायी और काशिका का ही रूपान्तर जैनेन्द्र पचाध्यायी और उसकी महावृत्ति मे प्राप्त होता है । फिर भी काशिका और महावृत्ति की सूक्ष्म तुलना करने पर यह प्रकट हो जाता है कि अभयनन्दी ने कुछ ऐसे उदाहरण दिये हैं जो काशिका मे उपलब्ध नही होते और फलस्वरूप ऐसी सामग्री की शिक्षा की है जो काशिका से प्राप्त नही हो सकती। उन्होने जहाँ सम्भव हो सका वहाँ जैन तीर्थंकरो के महापुरुषो के, या ग्रन्थो के नाम उदाहरणो मे डाल दिये है । जैसे, सूत्र ११४/१५ के उदाहरण मे 'अनुशालिभद्रम् आढ्या, अनुसमन्तभद्र तार्किका सूत्र १|४|१६ के उदाहरण मे 'उपसिहनन्दिन कवय उपसिद्धसेन वैयाकरणा सूत्र ११४/२० की वृत्ति मे 'आकुमारेभ्यो यश समन्तभद्रस्य, सूत्र ११४१२२ की टीका मे 'अभयकुमार श्रेणिकत प्रति, सूत्र शहद की टीका मे 'भरतगृह्य, भुजवलिगृह्य सूत्र ११३ १० की वृत्ति मे 'आकुमार यश समन्तभद्रस्य ऐसे उदाहरण है जो वृत्तिकार ने मूलग्रन्थ के अनुकूल जैन वातावरण का निर्माण करने के लिए अपनी प्रतिभा से बनाये है। सूत्र ११३ ५ की वृत्ति मे प्राभृतपर्यन्तमधीते' उदाहरण महत्वपूर्ण है, उसी के साथ 'सम्बन्धम्, सटीकम् अधीते' भी ध्यान देने
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