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________________ प्रकाशकीय तेसपथ का उद्भव एक क्रान्तिपूर्ण इतिहास की कडियो से जुडा है। इसके आविर्भावक महान् लौहपुरुष आचार्य भिक्षु एक क्रान्ति-द्रष्टा साधक थे, जिन्होने अध्यात्म-जगत् मे अद्भुत क्रान्ति की। उन द्वारा उप्त कान्ति-वीज से अकुरित, सद्धित, पल्लवित एव पुष्पित तेरापथ का महान् वटवृक्ष सतत विकास पाता गया, जिसकी फलान्विति आज अनेक रूपो मे दृष्टिगोचर है। नूतन और पुरातन की भूल-भुलैया मे न पड़ सत्य और यथार्थ का अवलम्बन करते हुए अग्रसर होते रहना तेरापथ का मूल मन है। यही कारण है कि तेरापंथ मे समय-समय पर जव जैसे अपेक्षित हुए, विकास के नये-नये उन्मेष आते गए, सवर्द्धन, उन्नयन और विकास होता गया। सयम और श्रुत दोनो दृष्टियो से तरापथ एक उत्कर्षशील धर्म-सघ है। आचार्य भिक्षु के उत्तरवर्ती आचार्यों ने अनेक दृष्टियो से इसकी सतत अभिवृद्धि की। जैन धर्म माचार-प्रधान धर्म है। शुद्ध आचार-सवाहकता जैन श्रमण का जीवनसत्त्व है । आचार के साथ श्रुत शास्त्रज्ञान विधा का भी अपना महत्व है क्योकि उससे आचार को सवल वैचारिक पृ०भूमि प्राप्त होती है।। तेरापथ के अण्टमाचार्य श्री कालूगणी ने अपने आचार-समुन्नत अन्तेवासियो को अधिकाधिक श्रुत-समुन्नत करने का अपने शासनकाल मे अत्यधिक प्रयत्न किया। उसी के अन्तर्गत सघ मे हुए सस्कृत विद्या, प्राकृत भाषा आदि के गभीर अध्ययन का पक्ष आता है। आचार्य श्री कालूगणी चाहते थे, उनके साधु-संघ मे सस्कृत विद्या का भरपूर प्रसार हो, क्योकि इससे शास्त्र-परिशीलन मे विशेष आनुकूल्य होगा। आचार्य श्री कालूगणी परम दृढ निश्चयी थे, उसी का यह परिणाम हुआ कि तेरापय मे सस्कृत के अनेक पारगामी विद्वान् साधु-साध्वी तयार हुए। इतना ही नही, सस्कृत और प्राकृत मे अभिनव व्याकरण तक लिखे गए। प्रात स्मरणीय आचार्य श्री कालूगणी द्वारा संचालित यह महान् प्रयास उनके उत्तराधिकारी महामहिम आचार्य श्री तुलसी द्वारा उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता रहा।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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