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संस्कृत के जैन वैयाकरण: एक मूल्यांकन
डॉ० गोकुलचन्द्र जैन
ભારતીય વાડ્મય को समृद्ध करने मे जैनाचार्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । उन्होने ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखा प्रशाखाओ पर सहस्राधिक ग्रन्थो की रचना की है । भापा और देशकाल के बन्धन मे वे कभी नही बन्धे । इसलिए प्राचीन भारतीय भाषाओ से लेकर आज तक की भाषाओ मे ग्रन्थ रचना की स्रोतस्विनी का अजस्र प्रवाह प्रवर्तमान है ।
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समय के दीर्घ अन्तराल मे भारतीय वाड्मय के अनेक ग्रन्थ रत्न काल के कराल गाल मे समा गये | जैनाचार्यों की भी अनेक महनीय निधिया लुप्त हो गयी, फिर भी जितना शेष है, उससे भी भारत के सांस्कृतिक इतिहास को जैनाचार्यों के महत्त्वपूर्ण योगदान का मूल्याकन किया जा सकता है ।
प्रस्तुत निबन्ध मे हम संस्कृत व्याकरणशास्त्र को जैनाचार्यो के योगदान का मूल्याकन करेंगे । व्याकरणशास्त्र पर जैनाचार्यों ने जितने ग्रन्थ लिखे, उनमे से अनेक अव उपलब्ध नही है । अन्य ग्रन्थो मे उनके यत्र-तत्र बिखरे हुए जो सन्दर्भ मिलते हैं, उनसे उन ग्रन्थो की महनीयता का पता चलता है । वर्तमान मे जो ग्रन्थ उपलब्ध है, वही इस मूल्याकन के आधार स्रोत है । मेरी राय मे यह मूल्याकन मुख्य रूप से निम्नलिखित दृष्टियो से किया जाना चाहिए ।
१ जैनाचार्यो ने संस्कृत व्याकरणशास्त्र की दीर्घकालिक परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए पूर्वाचार्यों की उपलब्धियों को अपने ग्रन्थो मे उदारतापूर्वक सरक्षित किया तथा प्राचीन ग्रन्थो पर न्यास, टीका आदि लिख कर संस्कृत व्याकरणशास्त्र का विस्तार, स्पष्टीकरण और सरलीकरण करके संस्कृत व्याकरणશાસ્ત્ર ની પરમ્પરા જોયો વઢાને મે નો યોાવાન વિયા, સા મૂલ્યાન સ प्रकार के अध्ययन का एक पहलू है ।
२ भारत के सास्कृतिक इतिहास की जिस महत्त्वपूर्ण सामग्री को पूर्वाचार्यो ने अपने ग्रन्थो मे सरक्षित किया था, उसे सुरक्षित रखते हुए उसमे समसामयिक