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३० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोग की परम्परा
चिन्तन मे निमग्न हो गए । गोठीजी ने कहा-आप गगापुर चलें । उन्होंने कहाअभी मैं वहा जाने की स्थिति में नही हू । पडितजी को अपना परामर्ग लिन दूगा । उन्होने यकृत मे छ ५लोको का एक परामर्श पडितजी को लिखा । गोठीजी और चोपडाजी उस पत्र को लेकर गगापुर आए और वह पत्र उन्हान पडितजी को दे दिया। स्वामी लच्छीरामजी ने पटिनजी की चिकित्सा का पूरा समर्थन किया। उन्होने कुछ औषधियाँ और जोड़ने का सुझाव दिया। पत्र के अन्त में उन्होने एक मार्मिक मकेन भी दे दिया। उन्होंने लिया रोग कष्ट साध्य है, अवस्था वृद्ध है, रोगी मशक्त नहीं है, वर्षा ऋतु उपद्रव कर रही है। इन स्थिति को ध्यान मे रखकर ही आप चिकित्सा चलाए ।
स्वामी लच्छीरामजी के पत्र से पडितजी को स्फनि मिन्नी। माधुओ तया समाज के लोगो का भी विश्वास जमा। फिर नई उमंग के साथ पडितजी ने चिकित्मा शुरू की। अडूसा के सूखे पत्ते के साथ एक दवा दी। उसमें मूली खामी का वेग वन्न हो गया। उसमे वडी भाति मिली। कुछ नीद भी आई। सबको वडा उल्लास हुआ। ___ सरदारशहर से डॉ० श्यामनारायणजी आए। उन्होने आचार्य र के गरीर की जाच की। पडितजी द्वारा संचालित चिकित्सा का अध्ययन किया । वे पडितजी की चिकित्सा से प्रभावित होकर बोले -चिकित्सा वहुत सुन्दर चली है। इसके लिए पडितजी को जितना साधुवाद दिया जाय, उतना कम है। ५२ रोग बहुत जटिल स्थिति में चला गया है । कलकत्ता, बबई आदि नगरो से भी डाक्टर और वैद्य आए । उनका भी अभिमन यही रहा । बीमारी की समस्या सुलझने के बजाय उलझती ही गई।
महाप्रयाण
भाद्र शुक्ला चौथ का दिन जाति मे बीता। रात को वास का प्रकोप वढ गया । साधुओ ने प्रार्थना की गुरुदेव । आज स्थिति नाजुक है। शरीर का रंग बदलने लग गया है। अब क्या किया जाए। आचार्यवर स्वयं जागृत थे और अपने शिष्य-समुदाय का सकेत मिलने पर उनकी जागरूकता द्विगुणित हो गई। वे पोले अभी रात है । रात को कुछ खाना-पीना नहीं है । कलमवत्सरी है इसलिए सहज ही उपवास है । इस अववि मे यदि प्राण-त्याग हो जाए तो मुझे यावज्जीवन चतुर्विध आहार का त्याग है।
आत्रायवर ने सशर्त अनसन स्वीकार कर लिया ! उनकी साधना कसोटी पर पंढ गई। जिसे गरीर त्यागे, वह माधक कसौटी में अनुत्तीर्ण हो जाता है। जो पहले ही शरीर को त्याग दे, वही साधक कमोटी में नीर्ण होता है। आचार्य वर इस परीक्षा में पूर्ण उत्तीर्ण हुए।