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________________ ४४८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा (१०५।१०६), सप्तभूमि (१०५।११०), रत्नाभा (१०५।१११), शर्करा-वालुकापकवान्तमोनिभा (१०५।११२), नरक (१०५।११७), देवारण्य (१०५।१४०), अर्णव (१०५।१४०), द्वीप (१०५।१४०), योग्य भूमि (१०५।१४०),जम्बूद्वीप प्रमुखद्वीप (१०५।१५४,१५५),लवणादिसागर (१०५।१५४), मेरु (१०५।१५६) कुलपर्वत (१०५।१५७), हिमवान् (१०५।१५७), निपध (१०५।१५७), नील (१०५:१५७), रुक्मी (१०५।१५८), शिखरी (१०५।१५८), भरतक्षेत्र (१०५।१५६) ६ विद्या-सम्बन्धी शब्द २४ सख्यक टिप्पणी से दशित स्थल मे विद्यासम्बन्धी शब्दो की सूची दी गई है। उन शब्दो के अतिरिक्त कुछ ये है साहा (७।३३३), रतिसंवृद्धि (७।३३३), ऋम्भिणी (७।३३३), व्योमगामिनी (७।३३३), निद्राणी (७।३३३), सिद्धार्था (७।३३४), शत्रुदमनी (७।३३४), नियाधाता (७।३३४), खगामिनी (७।३३४), भ्रामरी (८।३०८), योधिनी (१९६१), प्रतियोधिनी (६०।६२), सिंहयान (६०।१३५), गारुड (६०।१३५), अमोवविजया (६५।४२) तथा प्रज्ञप्ति (६५।४२) आदि। १० शास्त्रार्थ सम्बन्धी शब्द ग्यारहवे पर्व मे शास्त्रार्य का वर्णन है जिसमे वैदिक मतानुयायी तया जैन मतानुयायी विचार पद्धतियो पर वाद प्रतिवाद हुआ है। इस प्रमग मे पर्याप्त पारिभापिक तथा विशिष्ट श०६ प्रयुक्त हुए है, यथा यजदीक्षाज्यपातक (११।६), अजेयष्टव्यम् (११॥ ४१), आलमन (११।४३), पशु (११।४३, ८४, २४४), प्राश्निक (११।४५)। यौनसम्बन्ध (१११५५), शास्त्रीय मबध (१११५५), दक्षिणा (१११५७), ऋपि (११।५८), चतुर्विधि जनपद (१११६५), नाना प्रकृति (१११६५), सामन्त (११६६५), मन्त्री (१११६५), जल्पमण्डल (११।६५), विवाद (१११६६), तत्व (११६७), वितयसामर्थ्य (१११७०), परमार्थनिवेदन (११७०), हिंसाधर्मप्रवर्तन (१११७२), वामस्कन्वस्थसूत्रक (१११७६),कमण्डलल्वक्षमालादिनानोपकरणावृत (१११७६), हिंसाकर्मपर शास्त्र (१११८०), तापस (११।८१), सूत्रकण्ठ (१११८१, १०८, २३८), हिंसाधर्म (११।८१), पक्ष (१११८२), यन (११३८३), ब्रह्मा (१११८३), वध (१११८४), सौतामणि (१११८५), सुरापान (१११८५), अगम्यागमन (१११८५), गोसव (१११८५), मातृमेध (१११८६), पितृमेध (११८६), अन्तर्वदि वध (१११८६), आशुशुक्षणि (१११८७), जुवक (१११८७), स्वाहा (१११८७), शुद्ध द्विजन्मा (११।८८) खलति (१११८८), आस्थदन (१११८६), ज्वलन (१११८६), आहुति (११।८६) पुरुष (११।६०), ईशान (११।६०), अमृत्व (११।६०), अन्न (११।६०), प्राणिनिपातन (११।९१), मास-भक्षण (११।६२), यायजूक (११।६२), देवोद्देश्य (११।९२) हिमायनस्यनी (१११९४), दीक्षित (११।६४, १२८), मुअन्य (११।१०३), यसवाट (११।१०६), ऋत्विक (११११०७, १६२),
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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