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________________ सस्कृत के जन पौराणिक काव्यो की शब्द-सम्पत्ति ४३३ नि शेखेसु निकायेसु नानाशक्तिसमन्विता । नानानानिवासिन्यो नानीखधिदिदस्तथा ।। सर्वार्थसिद्ध सिद्धार्था जयन्ती मगला जया। सङ्क्रामिण्य प्रहाराणामशय्याराधनी तथा ।। विशल्यकारिणी चैव वणसरोहिणी तथा। सवर्णकारिणी व मृतसजीवनी परा ॥५ इसी प्रकार अन्य अनेक विषयो से सम्बद्ध शब्दावली के एकल प्रयोग सभी कवियो की रचनाओ मे हुए है। नाम, आख्यात, उपसर्ग और नियत शब्दो के झुण्ड एक साथ देखने हो तो सस्कृत के इन जैन पौराणिक काव्यो का पारायण परम लाभकारी है। इन कवियो के द्वारा प्रयुक्त शब्दो मे बहुत से पूर्वपरम्परा प्राप्त है और बहुतो का निर्माण इन कवियो ने स्वय भी किया है। _____नाभिक शब्दो की कल्पना मे इन कवियों का मेधा-विलास देखने के योग्य है । कही कही छन्द के अनुरोध से एक सज्ञापद कई खण्डो मे विभक्त हो जाता है यथा 'समवशरण', 'शरण समवादिकम्'२६ तथा कही रूढ' पद भी 'योग'-पद हो जाते है । कही-कही व्यक्तिवाचक नाम भी पर्याय रूप मे अथवा परिवर्तित रूप मे प्रयुक्त हुए हैं। इनकी सगति के लिए आधारमन्थो का अवलोकन आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के लिए रविषेण के द्वारा प्रयुक्त 'अकीति' शब्द लिया जा सकता है जो 'आदित्ययशा' का पर्याय है ।२० जो व्यक्ति विमलसूरि के 'पउमचरिय' में प्रयुक्त व्यक्तिवाची नाम 'आइच्चजस' से परिचित है यह तो अकात्ति' का अर्थ 'आदित्य (अ) यशा (कीति)' लगा लेगा किन्तु जिसे इसका ज्ञान नही है वह यही निर्धारण करता रह जाएगा कि उस व्यक्ति का मूल नाम क्या है 'अर्ककाति' या 'आदित्ययशा' ? ऐसे ही शब्दो की श्रेणी को बढ़ाते हुए रविषण 'भानुकर्ण' के लिए 'भास्क (कर्ण'२८ 'भास्कर श्रवण'२९ तथा 'आदित्यश्रवण'३०, दशानन' के लिए विशत्यर्धमुख'२१, 'अशनिर्वग' के लिए 'अशनि रहा'२२, 'विजयपर्वत' के लिए 'जयपर्वत'२३, 'तिलोकमण्डल' के लिए निजगद्भ षण' का प्रयोग करते हैं। विमलसूरी के द्वारा “पउमचारिय' मे प्रयुक्त व्यक्तिवाचक नामावली और रविषण के द्वारा 'पद्मपुराण' में प्रयुक्त नामावली की तुलना करने पर कई स्थलो पर दोनो मे बड़ा अन्तर मिलता है। यदि मूल आधार ग्रन्थ को न पढा जाये तो व्यक्तिवाचक नामो का किसी और रू५ मे ही प्रयोग होने लगे। ____नामिक शब्दो के निर्माण मे, इन कवियो के द्वारा अनेक प्रक्रियायो का अगीकार किया गया है। कही एक ही शब्द से आरम्भ होने वाले नामो की रचना की गयी है तो कही एक ही शब्द से अन्त होने वाले नामो की। कही एक ही उपसर्ग से प्रारभ होने वाले अनेक नामो की उद्भावना की गयी है तो कही एक
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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