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१६वी २०वी शताब्दी के जैन कोशकार और उनके कोशो का मूल्याकन ४११
को सीमित कर लिया गया और कुल १०० विषय ही निश्चित कर लिये गये । इन्हे विवृति के लिए दार्शनिक पद्धति से योजित किया गया है । सकलना मे तीन बातो का विशेष ध्यान रखा गया है--पाठी का मिलान, विषय के उपविषयों का वर्गीकरण हिन्दी अनुवाद | इन सावधानियो से कोश अधिक उपयोगी बन गया है । प्रस्तावना केवल 'लेश्या-कोण' के अनुभवो और कोशकारो की प्रयोगधर्मिता का ही विवरण नहीं है, अपितु इसके द्वारा कोशकारो ने अपनी सपूर्ण योजना ( प्रोजेक्ट) को भी प्रस्तुत कर दिया है । वस्तुत उक्त कोश के सपादन मे कोशकारी का दृष्टिकोण सुस्पष्ट, निर्भ्रान्ति और वैज्ञानिक है । जैन विद्या के क्षेत्र में यह पहला कोश है, जिसने दाशमिक पद्धति से विषयों का वर्गीकरण प्रतिपादन किया है । कोशरचना की प्रक्रिया वैज्ञानिक, प्रयोगधर्मी और समीचीन तो है ही, रोचक और सुविधाजनक भी है । कोश १६६६ ई० मे प्रकाशित हुआ है। सपादक परम्परावादी नही हैं, प्रयोगधर्मी है । कोश रायल आकार मे मुद्रित है, इसमे कुल ४० + २१६= ३३६ पृष्ठ है । आरभ में एक सार्थक प्रस्तावना है, जिसमे कोशकारो ने कोश की उपादेयता, पद्धति, प्रक्रिया और उपयोगिता पर प्रकाश डाला है, साथ ही उस परिकल्पना को भी स्पष्ट किया है जो कोश की जननशीलता जेनरेटिनेस का द्योतक है। इस तरह यह कोश एक पडाव है, अन्तिम गन्तव्य नही है । मूलत कोशकारो की एक बृहत् योजना है, प्रस्तुत कोश जिसकी एक नगण्य किस्त है । प्रस्तावना से लगा हुआ श्री नथमल टाटिया का प्राक्कथन है, जिसमे उन्होंने कोश की उपयोगिता और उसकी विशिष्टताओ का उल्लेख किया है। हीराकुमारी वोरा ने आमुख लिखा है, जिसमे अनेक सभावनाओ, योजनाओ और परिकल्पनाओ को दिया गया है । आमुख का व्यक्तित्व समीक्षात्मक है । कुल मिलाकर 'लेश्या-कोश' एक ऐसा संदर्भग्रन्थ है, जिसने न केवल जैन विद्या अपितु प्राच्यविद्या को भी अलकृत समृद्ध किया है। इसी श्रृंखला मे १६६६ ई० मे 'क्रियाकोश' प्रकाशित हुआ है, किन्तु इसके बाद क्या हुआ, वह अविदित है ।
शास्त्र,
११ जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश इसे भारतीय ज्ञानपीठ जैसी विख्यात प्रकाशन संस्था ने ४ भागो मे प्रकाशित किया है । १९७० ई० - १९७३ ई० की मध्यावधि प्रतिवर्ष इसका एक भाग प्रकाश मे आता रहा है । कोश में जैन तत्त्वज्ञान, आचारकर्मसिद्धान्त, भूगोल, इतिहास, पुराण, तत्सवधी व्यक्ति, राजे-राजवंश, आगम, शास्त्र, शास्त्रकार, धर्म और दर्शन के विविध संप्रदाय इत्यादि से सबन्धित ६००० शब्दो और २१,००० विषयो का सांगोपांग विवेचन किया गया है । विद्वान् सपादक क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी और उनकी सहयोगी ब्र० कु० कौशल ने इसकी सकलना में अपरपार परिश्रम किया है। इसमे सकलित सामग्री १०० से अधिक ग्रन्थो से सदोहित है । आरभ मे सपादकीय है, फिर प्रास्ताविक और सकेत-सूची । प्रास्ताविक मे शब्दसकलन और विषय-विवेचन मे अनुसृत पद्धति पर प्रकाश डाला