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१९वी २०वी शताब्दी के जैन कोशकार और उनके कोशों का मूल्यांकन ४०६
'अभिधानराजेन्द्र' के सबध मे अन्य उपयोगी तथ्य इस प्रकार है कोशकर्ता श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि (१८२७ ई० १६०६ ई०) है, जो श्वेताम्बर समाज के त्रिस्तुतिक वर्ग के एक क्रान्तिनिष्ठ साधु थे। ये सौधर्मबृहत्तपागच्छीय आचार्यपरम्परा मे ६७वे आचार्य थे जिन्होने उक्त कोश के अलावा सन् १८६६ मे 'पाइयसबुद्धि' की रचना भी की थी और तत्कालीन यतियो मे व्याप्त शिथिलाचार के विरुद्ध एक व्यापक सुधारवादी क्रान्ति की। प्रस्तुत कोश सुपर रायल १।४ २५ सेंटीमीटर चौडे और ३५ मेटीमीटर लम्बे आकार मे छपा हुआ है। इसके मुद्रण मे २६ ५ाइट ग्रेट न० १ और १२ पॉ० पका न० १ का उपयोग हुआ है। इसमे तीन प्राचीन भापाए प्रयुक्त हैं प्राकृत, अर्द्धमागधी, सस्कृत । शब्द प्राकृतअर्द्धमागधी के है और शब्दविवृत्तिया सस्कृत मे। इसकी रचना में प्रयुक्त सदर्भ ग्रन्थो की संख्या ६७ है और विवृत शब्द ६० हजार है। इस महाकोश के संबंध मे तत्कालीन भारतीय विद्वानो ने ही नही अपितु विदेशी विद्वानो ने भूरि-भूरि प्रशसा की है। जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है "यह विश्वकोश एक सदर्भ-ग्रन्थ की भाति तथा जैन प्राकृत के अध्ययन के निमित्त अतीव मूल्यवान है।" प्रो० सिल्वा लेवी, आर० एल० टनर जैसे भापाशास्त्रियों ने भी इस कोश की उन्मुक्त प्रशसा की है। इस कोश का ऐसा कोई परवर्ती कोश नही है, जिसने इसका उपयोग न किया हो। यद्यपि इसकी नकलना मे श्वेताम्बर सामग्री-स्रोतो का ही उपयोग हुआ है तथापि कोशकार की दृष्टि व्यापक और उदार है। कोश क रूपाकार पर एक विहगम दृष्टि इस प्रकार सभव है
प्रकाशन-वर्ष पृष्ठसख्या विवत शब्द क्रम प्रथम
१६१३ १४४+८६३ अ अहोहिय દ્વતીય १६१० ११८७
आ---ऊहापन्नित तृतीय १६१४ १६३३+१ ए- छोह १६१३ १४०४
ज नोमालिया पचम १६२१ १६२७
प भोल १९३४ १४६८
म वासु १९३४ १२५२
श हव २४ । ६३३६
अ--ह व ६०,०००
ર્મા
चतुर्थ
५७०म
सप्तम
ग्रन्थ की कतिपय विशेषताए इस प्रकार हैं १ यह १९वी शताब्दी का सर्वप्रथम मानक पारिभाषिक कोश है, जो जैन विद्या का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करता है। जैन प्राकृत-अर्द्धमागधी पारिभाषिक शब्दो के लिए तो यह एकमेव सदर्भ है।