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________________ ४०४ स्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा और साहित्य के किसी-न-किसी रूप मे जुड़े हुए थे। वैसे 'अभिधान-राजेन्द्र' वय मे परिपूर्ण कोश नहीं है, उसकी भी अपनी सीमाए और विवशताए है, किन्तु वह उस तक हुए प्रयत्नो मे सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ है। एक तो वह म कृत मे है, “वभावत इस कारण उसकी व्याप्ति सीमित हो गई है, दूसरे वह उद्धरणो और साक्ष्यों से भरा पडा है । श्री शाह ने जन साहित्य का वृहद् इतिहास भाग ५ मे लिखा है कि कही-कही तो अवतरणो मे पूरे ग्रन्य तक दे दिये है' । जो हो यह महाकोश अद्वितीय है और जन तथा प्राच्य विद्या का एक बहुमूल्य सदर्भ है । इसमें प्रथम भाग के रिभ मे दिये गये ३ परिशिष्टो" मे प्राकृत मे मवधित व्याकरणिक सामग्री मयोजित है । इसी तरह उपोद्घात में भी कई तथ्यो को योजित किया गया है। "आवश्यक कतिपय मकेत" शीर्षक से सहयोगी कोशकार उपाध्याय श्रीमोहनविजयजी ने प्रस्तावना में कई आवश्यक और उपयोगी विषयो पर प्रकाश डाला है । इस पर रोमन लिपि मे 'जैन एन्सायक्लोपीडिया' छापा गया है । वस्तुत 'डिक्शनरी' और 'एन्मायक्लोपीडिया' में अन्तर है। एक विश्वकोश और शब्दकोश मे सबसे बडा बन्तर यह है कि विश्वकोश मे विविध शीर्षको के अन्तर्गत व्यापक जानकारियो का आकलन होता है, जबकि एक शब्दकोश मे शब्द-विवृतिया ही होती है । इस दृष्टि से हम 'अभिधान राजेन्द्र' या उससे मिलते-जुलते कोशो के लिए एक नया अभिवान विश्वकोशीय शब्दकोश (एन्साक्लोपीडिक डिक्शनरी) चुन सकते हैं। इसमे शीर्षक और शब्द दोनो विवृत है। ५ वस्तुत आधुनिक पद्धति से जन कोशो की सकलना का कार्य १८६० ई० से आरभ हुआ। 'अभिधान-राजेन्द्र' को इस क्षेत्र मे हुए प्रयत्नो मे मानक और सर्वप्रथम माना जा सकता है । इसके बाद जे० एल० जैनी की जन जेम डिक्शनरी १६१८ ई० मे प्रकाश में आयी। इसकी भी अपनी सीमाए है, स्वय श्रीजन ने इसे अन्तिम नही माना है ! उसमे श्री जनी ने पारिभाषिक शब्दो के अगरेजी-पर्यायशब्दो मे एकरूपता रखने की बात कही है क्योकि उनका अनुभव है कि इन पारिभापिक या लाक्षणिक दो के अनेक अंग्रेजी पर्याय रखने से पाठक या अध्येता द्विविधा मे फस जाता है, अत यह अत्यन्त आवश्यक है कि एक तो ऐसे पर्याय-शब्दो का उपयोग किया जाए जो बहुअर्थी न हो और दूसरे सर्वसम्मत हो। श्री जनी के कोश के वाद १९२३ई०-१९३२ ई० को कालावधि मे श्रीरत्नचन्द्रजी शतावधानी द्वारा पाच भागो मे मपादित 'एन इलस्ट्रेटेड अर्धमागधी डिक्शनरी' नामक कोश प्रकाशित हुआ। इसकी भी अपनी सीमाए है, समीक्षक मानते है कि इसमें कई पर्याय शब्द और कई आर्थी विवाए स्पष्ट नही है। वही अगरेजी-पर्याय-शब्दो की एकरूपता की समस्या यहा भी बनी हुई है। अमल मे अगरेजी-पर्याय देनेवाली डिशनरियो की यह मीमा तब तक रहेगी जबतक हम एक सर्वसम्मत मस्कृत-प्राकृत अर्द्धमागधी-हिन्दी-अगरेजी पर्याय दकोण का प्रकाशन नही कर लेते । इसके लिए
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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