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११वी २०वीं शताब्दी के जैन कोशकार और
उनके कोशों का मूल्यांकन
डा० नेमीचन्द जैन
१ शब्दज्ञान की परम्परा वैदिक युग से अविच्छिन्न चली आ रही है। निघण्टु' और निरुक्त' इसके स्पष्ट साक्ष्य है । शब्द और अर्थ रूढ सम्बन्धी है। अर्थ-बोध, अर्थ-निर्णय और अर्थ-सप्रेपण की समस्याए लेखक-पालक तथा वक्ताश्रोता के मध्य सदैव जीवन्त रही है। कोश-रचना की पृष्ठभूमि पर सम्यक अर्थसप्रेपण का लक्ष्य ही सर्वत्र सक्रिय रहा है। सही अर्थ और सही सदर्भ खोजने के यत्न मे ही कोश बने है और उन पर भारतीय मनीपा ने अटूट वस्तुनिष्ठा से कार्य किया है । जैन कोश आज जिस रूप मे उपलब्ध हैं, वह रूप, पद्धति और परम्परा बहुत प्राचीन नही है, उसने उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवी शताब्दी के आरभ मे ही आकार ग्रहण किया है। भारत मे अगरेजो के आगमन (१६०० ई०) से इस तरह के विशिष्ट अध्ययन को प्रेरणा मिला । यद्यपि अगरेजो का भारतीय भाषाओ के अध्ययन का लक्ष्य आरभ से पवित्र नही था, क्योकि वस्तुत वे यहा के निवासियो की भाषाए सीखकर उनपर अपना साम्राज्यवादी पजा और अधिक दृढ करना चाहते थे, तथापि उनकी इस प्रवृत्ति के भी अन्ततोगत्वा बड़े सुखद परिणाम निकले । हिन्दुस्तानी को लेकर अगरेजो ने कई शब्दकोश और श०सग्रह (डिक्शनरिया और व्होकेब्युलरिया) सपादित किए, किन्तु ये सब अगरेजी मे ही थे। जॉन अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वे मे इस तरह के कोशो और शब्दावलियो की एक व्यापक तालिका दी है। इस सूची मे अगरेजी मे तैयार कोश ही अधिक हैं, कहना चाहिए कि उन्नीसवी शताब्दी के आरभ होते ही अगरेजो का ध्यान इस महत्वपूर्ण कार्य की ओर गया और उन्होने अपने प्रशासनिक सुभीता के लिए उक्त प्रकार की शब्दावलिया बनाई। इस तरह तैयार कुछ व्यक्तिगत टीपे उपयोगी दस्तावेजो के रूप में भी प्रकाशित हुई है। कैप्टेन जोसेफ टेलर और