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१६ . संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और को। की परम्परा
समय हेमादानुशासन का एक प्रकाशित सस्करण जैचन्दलालजी व रमेचा के । यहा उपलब्ध हुआ। साधुओ ने आचार्यप्रवर को वह दिखाया । वह सर्वांगसपूर्ण व्याकरण था । कुछ साधुओ ने उसे पढना शुरू किया।
fમધુશવાનુશાસન નિર્માણ
विशालशब्दानुशासन के परिभाषा-सूत्र सरल थे, हेमशब्दानुशासन के कठिन । पडितजी दोनो को पढाते थे । आचार्यवर भी दोनो को देखते रहते थे। उनकी यह धारणा बन गई कि हेमशब्दानुशासन के सूत्र कठोर है। उसका प्रक्रिया-अथ भी प्राप्त नहीं है। इसलिए विशालशब्दानुशासन मे ही आवश्यक सशोधन कर उमे अध्ययन में प्रयुक्त करना चाहिए।
मुनि चीयमलजी' आचार्यवर की उस इच्छा की सपूर्ति मे लगे। वे विशाल भानुशासन के अध्येता थे। उनका अध्यवसाय स्थिर था। वे श्रमपटु थे। जिस कार्य मे लग जाते, उसे बीच मे छोडना उन्हे पसन्द नहीं था। पडित रघुनन्दनजी को उन्हे सहयोग मिला । विशालगन्दानुशासन के परिष्कार का कार्य प्रारभ हो गया।
मुनि चौथमलजी ने विशाल शब्दानुशासन के परिष्कार का कुछ कार्य मपन्न कर लिया । पडिन (धुनन्दनजी ने उसकी वृहद् वृत्ति तैयार की। उसमे सिद्धान्तकौमुदी और सिद्धहमगव्दानुशासन आधार रहा। इस कार्य की सपूर्ति पर सवको बहुत प्रसन्नता हुई । आचार्यवर का स्वप्न पूरा हुआ। उन्हे इस बात का सतोष हुआ कि अव सम्कृत विद्या के अध्ययन का क्रम व्यवस्थित ढग से चल पाएगा।
विशालगन्दानुशासन को परिष्कृत करने का उपक्रम चला था । पर उसमे इतना परिवर्तन हो गया कि एक नया ही व्याकरण-अथ बन गया। तब मत्री मुनि मगनलालजी के सुझाव के अनुसार उसका नाम 'श्रीभिक्षुशब्दानुशासन' रखा गया। वह नवीनतम शब्दानुशासन है। उसके सूत्र कोमल है। परिभाषा की जटिलता से वह मुक्त है। पडित रघुनन्दनजी ने हेमादानुगासन की तुलना मे उसका चित्र प्रस्तुत किया है .
हेममिद मम दक्षिणहस्ते, वामकरे भैक्षवमति रम्यम् । ब्रूहि किमिच्छसि कोमल बुद्ध
कर्कश भूत्रमकग सूत्रम् ॥ भिक्षुशब्दानुशासन के प्रथम अव्येताओ मे मैं और मेरे सहपाठी मुनि वनराज जी और चन्दाम जी ये । उस समय तक इसके प्रक्रिया-प्रथ का निर्माण नहीं हुआ था। इसलिए हम लोगो ने पहले सिद्धान्त चन्द्रिका कण्ठरथ की, फिर