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सस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रश की आनुपूर्वी मे कोश साहित्य ३५१
छह काण्डो मे निबद्ध है। प्रथम देवाधिदेवकाण्ड है, जिसमे निकाल चौबीस तीर्थंकरो की नामावली, उनके अन्य उपनाम, माताओ के नाम, शासनदेवता, ध्वजाओ आदि का वर्णन किया गया है। सम्पूर्ण कोश मे जन साहित्य मे आगत प्रमुख पारिभाषिक शब्दो का अर्थोल्लेख किया गया है। कोश मे कुल १८८६ श्लोक है। केवल 'अभिवानचिन्तामणि' मे १५४२ श्लोक है, शेष श्लोक 'शेपनाममाला' के हैं। प्रस्तुत कोश मे कई मौलिक विशेषताएँ लक्षित होती है। प्रथम कोश का विभाजन ही अपनी मौलिक सूझ-बूझ को प्रदर्शित करता है। वास्तव मे पार गतियो के आधार पर कवि ने चार काण्डो का नामकरण किया है। प्रथम काण्ड मगलाचरण रूप मे है और अविशिष्ट शब्दो का सकलन सामान्यकाण्ड मे किया गया है। वास्तव मे पार गतियो मे सभी वस्तुएँ और उनके नाम सगृहीत हो जाते है । अपनी इस पद्धति का उल्लेख स्वय कोशकार ने किया है ।२८ ___ कोशकार की मुख्य प्रतिज्ञा है "रूढयौगिक मिश्राणा, नाम्ना माला तनोम्यहम्" अर्थात् रूढ, यौगिक और मिश्र तीनो प्रकार के शब्दों का सकलन कर उनका विस्तार करूंगा। सैकडो वर्षों से जिन शब्दो का प्रयोग रूढ हो चुका था, उनका यथास्थान उसी अर्थ मे सकलन करना स्वाभाविक भी था। कोशकार ने इस बात का बराबर ध्यान रखा है कि रूढ शब्दो मे से कोई छूटने न पावे। उदाहरण के लिए, अमरकोश, विश्वप्रकाश तथा मदिनी अनेकार्थक कोशो मे "क्षुल्लक" शब्द के दो अर्थों का उल्लेख है "क्षुल्लक स्वल्पनीयो" थोडा, छोटा या नीच । 'अभिधान चिन्तामणि' मे यह उल्लेख इस प्रकार है
"क्षुद्रकवव शखनका क्षुल्लकाश्च ।" श्लोक १२०५ यद्यपि सस्कृत के सभी कोशो मे थोडे-बहुत देशी तया लोकभाषा के शब्दो का संग्रह भी मिलता है, जैसाकि होरा, होलक, खटक्किका, कट्टार, खुड, खुड, छाग, उल्लक और घुटक आदि । सामान्यत सस्कृत मे 'क' स्वार्थिक प्रत्यय जोड कर अन्य भाषाओ से शब्दो के ग्रहण करने की प्रवृत्ति प्रचलित रही है । अत टिटहरी के लिए 'टिट्टिभक', मूली के लिए 'मूलक', कटोरा के लिए 'कटोरक', झाश के लिए 'अल्लक', डलिया के लिए 'डल्लक' और करेला के लिए 'करिल्लक' नादि देशी शब्द कहे जाते हैं । सस्कृत मे अनेकार्थक शब्दो के विकास का भी रहस्य यही प्रतीत होता है । क्योकि जव चूल्हे के लिए 'मूषक' या 'मूषिक' शब्द प्रचलित था, तब उन्दुरु या उन्दूर' कहने का क्या कारण था ? केवल इतना ही कि जिस समय जो संस्कृतकोश निर्मित हो रहा था, तब ये शब्द विशेष चलन मे थे। अत ऐसे शब्दो को साधारण रूप से कोई भी कोशकार नही छोड सकता था। फिर भी, इस दृष्टि से निकाण्डशेप' कोश विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें मूषक के पर्यायवाची शब्द तीन (उन्दुरु, तुटुम और रन्ध्रवभ्र) और छुछुन्दरी के पार पर्यायवाची शब्द दिए गए है२९ चिक, वेश्मनकुल पुवृप और गन्धमूषिक । किन्तु