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संस्पति, प्राकृत तथा अपभ्रंश की आनुपूर्वी में
પોરા સાહિત્ય
डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री
भारतीय वाड्मय मे शब्दकोशो की एक सुदीर्थ परम्परा उपलब्ध होती है । लगभग एक सहस्र से भी अधिक शब्दकोशो की रचना हो चुकी है। ये शब्दकोश भारत की विभिन्न भाषाओ मे लिखे हुए मिलते हैं । प्रत्येक भाषा की अपनी भिन्न शब्द-सम्पदा तथा प्रकृति है, जिनके आधार पर अन्य भाषाओ से उसका लक्षण्य सूचित होता है। प्रत्येक कोश एक सन्दर्भ ग्रन्थ के समान होता है, जिसमे शब्दरूपो की परिचिति, उ.पारण, कार्य, व्युत्पत्ति, अर्थ, वाक्यात्मक विन्यास तथा मुहावरे के प्रयोग के माय शब्दो का वर्णादि क्रम से सयोजन किया जाता है। यथार्थ मे शब्दकोश की अपनी विशिष्ट पद्धति है । सिडनी एम० लम्ब ने शब्दकोश के अन्तर्गत उपलब्ध सभी प्रकार के शब्दो और अर्थों के छह प्रकार के सम्बन्धो का विवेचन किया है। (१) अनेकार्य शब्द, (२) विभिन्न एकार्यक शब्द, (३) सहयोगी विनिश्चयार्थक श०६, (४) सयोगी शब्दो का अर्थ-निर्णय , जसे कि अमा-ताप, विध्वस-विस्फोट, लूट-खसूट इत्यादि, (५) विपर्यय शब्द, (६) सामान्य गभित अर्थ का घोतन करने वाले शब्द, जैसे पंड शब्द मे पौधे का भाव भी निहित है। कोश के मुख्य अग माने गये हैं शब्द-रूप, उ.पारण, व्याकरण-निर्देश, व्युत्पत्ति, व्याख्या, पर्याय, लिंग आदि । यदि कोई भाषा अपने पीछे इतिहास की दीर्घ परम्परा रखती है, तो यह स्वाभाविक है कि वह साहित्य से सामग्री का चयन कर प्रचलित साहित्यिक स्तर का भी सन्धान करे। शब्दकोशकार ऐतिहासिक पद्धति के आधार पर कोश का सकलन करता है, किन्तु यह सभव नही होता कि बोलियो के प्रकारों को भी वह चित्रित कर सके।
यद्यपि शब्दकोश या कोश का निर्माण शब्दो से होता है, किन्तु कोशगत शब्दो मे तथा सामान्य शब्दो मे अन्तर किया जाता है । सामान्य शब्द पूर्णत एक