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प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३४१
पूर्व पृष्ठो मे रूप-तत्त्व के आधार पर यह सिद्व किया गया है कि आधुनिक राजस्थानी का साँचा उना विशेषताओ को सुरक्षित रखते हुए ही विकसित हुआ है। चाहे क्रिया रूप हो या सनापद, सभी मे सरलीकरण की जो प्रवृत्ति प्राकृत-अपभ्र श मे उत्पन्न हुई थी, आज भी है। विभक्ति लोप सरलीकरण का ही प्रतिदर्श है, इसी को सूत्रबद्ध रूप मे हेमचद्र ने 'स्यम् जस् शसालुक्' कहा था। यह प्रवृत्ति राजस्थानी में ही नही, अन्य आधुनिक आर्य भाषाओ मे भी है, वस्तुत इसमे और परिवर्तन का अवसर भी नही है अत यथावत् चल रही है। इसी प्रवृत्ति ने प्रातिपदिक और पद का भेद भी लुप्त कर दिया है।
प्रस्तुत निबंध मे राजस्थानी परिनिष्ठित राजस्थानी की विशिष्ट कृतियो को आधार बनाया गया है। एक तरह से यह विवेचन प्रयोगाश्रित है, यह इसलिए किया गया है कि प्रामाणिक बन सके । और इन प्रमाणो से यह सिद्ध होता है कि प्राकृत-अपभ्र श से ही राजस्थानी भाषा के मूल तत्व विकसित हुए है। अतएव राजस्थानी के सही स्वरूप को समझने में प्राकृत-अपभ्र श की परंपरा का अध्ययन बहुत आवश्यक है। राजस्थानी के लोकप्रचलित विविध रूपो के तुलनात्मक अध्ययन की भी नितान्त अपेक्षा है।
सदर्भ-ग्रथ
१ डा० सुनीतिकुमार चटर्जी, राजस्थानी भाषा । २ प० चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पुरानी हिन्दी ३ डा० टेसीटोरी (हिन्दी, अनुवाद डा० नामवर सिंह), पुरानी राजस्थानी । ४ श्री भूपतिराम साकरिया, आधुनिक राजस्थानी साहित्य । ५ ता० शिवस्वरूप शर्मा, राजस्थानी गद्य साहित्य । ६ डा० मनोहर शर्मा (सपादक) 'जागती जोत' का समीक्षा अ क । ७ श्री सीताराम लालस राजस्थानी सबद कोस ८ गोड, आशिया एव सहल, वीरसतसई (द्वितीय आवृत्ति) ह" " वलि क्रिसन कमिणी री। १० डा. वीरेन्द्र श्रीवास्तव, अपभ्रश भाषा का अध्ययन ११ आ० हेमचद्र, सिद्धहेमशब्दानुशासन १२ " अपभ्रश व्याकरण (शालिग्राम उपाध्याय) १३ डा० पिशेल प्राकृत भाषाओ का व्याकरण । १४ डा. प्रेमसुमन जन, आचार्यप्रवर आनद ऋपि अभिनदन ग्रय मे प्रकाशित 'राजस्थानी
भाषा में प्राकृत अपभ्र श के प्रयोग' लेख। १५ " " कुवलयमाला कहा का सास्कृतिक अध्ययन, वैशाली, १९७५ १६ डा० प्रेम सुमन जैन और डा० कृष्ण कुमार शर्मा-अपभ्रश काव्य-धारा । १७ श्री पद्रसिंह 'बादली' १८. डा० नारायणसिंह भाटी, 'साँझ'