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________________ प्रत्यय प्राकृत अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३३७ उ> लो परिवर्तन के साथ प्रयुक्त हुआ है । AS अपभ्र श से आगत यह प्रत्यय प्रयोग मे भी अपभ्रंश के सदृश है अर्थात् स्वार्थे प्रयुक्त होता है कागडी, गांठडी, चामडउँ, आदि मे यही प्रत्यय है । कभी-कभी इसके साथ जैसे अलउ प्रत्यय और जुड जाता है, कूखडली, माडली आधुनिक राजस्थानी में भी यह प्रत्यय ( स्वार्थ प्रयोगो मे आता है गोरडी (गोरी) कुरजडली ( कुरज पक्षी) आदि प्रयोगो मे यही प्रत्यय है । ये वे प्रत्यय है, जिनका राजस्थानी मे धडल्ले से प्रयोग होता है और जो सीधे अपभ्र श स्रोत से राजस्थानी मे आए है । प्राकृत સર્વનામ जैसे राजस्थानी के रचनात्मक प्रत्यय, पूर्वकालिक क्रिया रूप, भविष्यकालिक क्रिया रूपो मे प्राकृत अपभ्रंश का असदिग्ध प्रभाव दिखलाई पडता है, वैसे ही सर्वनामो की स्थिति भी है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी में उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम का रूप 'हूँ' प्रचलित था । निश्चय ही यह अपभ्रंश 'हाँ' का सकुचित रूप है | हेमचंद्र ने ह का विधान 'सावस्मदो हउ' सूत्र में किया है । माध्यमिक राजस्थानी मे इस उत्तम पुरुष एकवचन सर्वनाम का यही रूप सुरक्षित है बेलि मे इसके निम्नलिखित रूप मिलते है कर्ता हूँ कर्म मूं, हूँ, मुझ, अह्म सबध अधिकरण अह्म प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे सवध कारक मे 'मझ', 'मुझ' और मूं मिलते ही है । आधुनिक राजस्थानी मे 'हूँ', मूं, म्हारा, म्हैं, आदि रूपो के प्रयोग हेतु प्रमाण की आवश्यकता नही है | मूझ, माहरो, मो, मू, अम्हीणो उत्तम पुरुष बहुवचन का रूप अपभ्रंश मे – 'जसशसोरम्हे, अम्हइ' सूत्र के अनुसार कर्ताकारक मे 'अम्हे' और कर्मकारक में 'अम्हई' होता है । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे एकदम यही रूप 'अम्हे' था | मारवाडी मे यह आदिस्वर लोप के पश्चात् 'म्हे' रह गया है । इसी 'म्हे' से सबंध कारकीय रूप 'म्हारा' बनता है । मध्यम पुरुष एक वचन मे अपभ्रंश मे 'तु हु' आदर्श होता था । प्रथमा और
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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