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__ ३२६ सस्कृति-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
आजावोधक मे अन्य पुरुष एकवचन, 'हुउ' य = भवतु > अप० होउ>हुउ है । विधि मे उत्तम पुरु५ मे हुजि, मध्यम पुरुष मे होडणे, अन्य पुरुष मे हुए, मध्यमपुरुष बहुवचन होयो।
भविष्यकाल मे होइसि', हुएसि, हुइसिड, होसि, आदि रूप बनते हैं ।
वर्तमानकालिक कृदत का सर्वाधिक प्रचलित रूप है-हुँत । अपभ्रश मे भूतकालिक कृत् प्रत्यय 'उ' है जिससे हूअर, हूयउ वने।
अव द्वितीय क्रिया है, परन्तु यह मुख्य और सहायक दोनो प्रकार से प्रयुक्त होती थी। यह स ऋच्छति से अपभ्र श मे अच्छइ हुई है। पिशेल के अनुसार मादि 'अ' प्राय लुप्त होकर ७४' रूप बनते है जो वचन और पुरुष के अनुसार बदलते हैं। यह छई ही छै, छो, छी के रूप मे आधनिक राजस्थानी मे सहायक क्रिया के रूप में प्रयुक्त होता है।
राजस्थानी मे धातु से निष्पन्न क्रिया रूपो मे अपभ्र ण का प्रभाव विशेष रूप से उल्लेखनीय है । अपभ्र श व्याकरण के अनुसार अन्य पुरुप की एक ब० द्विव० और व० व० की विभक्ति को विकल्प से हि' आदेश होता है। (त्यादेराद्यनयस्य सवधिनी हिं न वा) इसी प्रकार मध्यम पुरुप एक व० को विभक्ति को हि' आदेश होता है । वहुवचन मे 'हु' आदेश होता है (बहुत्वे हु ) उत्तमपुरु५ एक व० मे 'उ' और बहुवचन मे हु होता है। इन्ही रूपो से आधुनिक राजस्थानी के रूपो की सिद्धि होती है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानो के रूप तो अपभ्र श जैसे ही है
अपभ्रश प्रा०प० रा० राजस्थानी (अन्य पुरुष एकवचन कअइ करअ कर३> करें ।" , ब० व० कअहिं कई करड> करें (मध्य , एकवचन कअहि कर्सइ
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अ> पेलि किस रूकमणी री' मे वर्तमान काल के अन्य पुरुष एक व० (सकर्मक) (१) मूकै (२) मूकई (३) मूकति, आदि रूप मिलते है, इनमे से प्रथम और द्वितीय तो अपभ्रश से प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी की परपरा से आए है। द्वतीय सस्कृत के '५०ति' के सादृश्य पर निर्मित लगता है।
स्त्रीलिंग मे भी मूक रूप ही चलता है। मध्यम पुरुष एक व० मे 'मूक', मूकई, भूक तया स्त्रीलिंग मे भी यही प्रचलन है। उत्तम पुस्प एकवचन मे 'मूक'
और बहुवचन मे आँ वाला 6५ 'मूकाँ' चलता है, जिसकी परपरा अपभ्र श दिखलाई है। वेलि मे इस काल रचना के उदाहरण निम्नलिखित हैं
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