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प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३२३
इ/ये दोनो ही रूप प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे भी प्रयुक्त होते रहे, परन्तु यातव्य यह है कि 'हि' भी -5 (ई) के रूप मे रह गया था। अपभ्रंश की भाति है' 'अ' को छोडकर शेष स्वरान्त प्रातिपदिको के साथ आता था, इ,ए अकारान्त
साय। टैसीटोरी ने हिँ अथवा हि प्रत्यय से निष्पन्न रूपो के उदाहरण नम्नलिखित दिये हैं -- विद्याइ, शिविका, रात्रइ, आदि परन्तु धरि, सूरि, गोअलि, पेटिमझारि आदि रूपो की व्युत्पत्ति अपभ्र श के ए, एँ, इ से मानी माती है।
पुल्लिग और आ, ई तथा ऊ अत वाले प्रातिपदिक अइ और--अ' प्रत्यय हण करते है नगरीअइँ, नगरीय' आदि । अधिकरण ब० व० मे प्राचीन 'श्चिमी राजस्थानी में प्रयुक्त होने वाला प्रत्यय ए है
श्रवणे, कॉने, घणी देसे आदि स प्रकार अविकरण में प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे प्रयुक्त प्रत्यय है - -~-इ अथवा हू (अपभ्र श हिँ अथवा हि से व्युत्पन्न)
(ए/ड से व्युत्पन्न) अइ और अ.
इ
वहुवचन मे
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माध्यमिक राजस्थानी कृति वेलि मे 'इ' और 'ए' दोनो प्रयुक्त हुए है, साथ ही 'मैं', 'महि', 'परि', लगि, लगी, लग परसर्ग भी मिलते है। उदाहरण निम्नलखित है
१ जिणि सेस सहस फण फणि फणि बि वि जीह -'इ' (७८-५) २ लखण वतीस वाल लीलाम ३ सुणि स्रवणि वयण मन माहि थियो सुख
-माहि ४ ५खी कवण गयण लगि पहुँच ५ राज लग मेलिहयो रूखमणी ६ आयो अस खेडि अरि सेन अतर ७ पूछत पूछत ग्यौ अतहपुरि ८ ऊपडी धुडी रवि लागी अम्बरि ६ अम्बि अम्बि कोकिल आलाप १० उतमग किरि अवर आधो अधि ११ आणि जल तिरय उप अलि पिअति , १२ ए अखियात जु आउधि आउध
१३ आवासि उतारि जोडि कर ऊभा १४ झांखाणा उरि उठि झल
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