________________
३२० मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा
१ वयण डेडरॉ किसी वस
| आँ (४८-५) वयण डेड गं= मेटको के वचन २ कामणि कर मुवाण काम रा
(.,- २३) वाण कामग-काम के वाण
रा ३ वाककति करि हम ची वानक
(, १२) ('चौ' का हस चो वालकहम को वा
व व ५ चाँ है । एक
स्त्रीलिंग रूप भी) ४ कहण तो तिणि तणो को रतन तिणि तणी कीरतन = उनका कीर्तन
तणी (, ६०) ५ हलवर का बाहता हलाह
| का (,, -१२४) हलधर के (काँ) चलाए हुए हलो से ६ ग्याति किसी राजवियाँ वाला
राजवियाँ = राजवणियो का वेलि गलि तस्वगविलागी गलतरा वृक्षो के गले
आँ (, २५१) ८ क्रमियी तासु प्रणाम कर
उसे प्रणाम करके चला હ તિહિ સુમિત વેલે
उसको कुसुमित देखा १०. दला दूंह
વોનો વનો જી ११ पुहपा, पाता १२ वरहासा नासा वन्ति
वोडो के नथुने वज रहे है वेलि के उपर्युक्त उदाहरणो मे अपभ्रश का 'सु' है, 'आह' का मकुचित रू५ 'आँ' है। याँ मे भी आँ माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त तणा, तणी, चौ/चां/ची, तथा रा, री आदि परसर्ग हैं। मध्यकालीन राजस्थानी मे, इस प्रकार अपभ्र श का प्रभाव भी है और विकास के दौर मे गृहीत परसर्गीय प्रवृत्ति भी। परन्तु इन रूपो का इतिहास स्पष्ट है, विकास याना की पूरी रूपरेखा राजस्थानी के तीनो चरणो मे सुरक्षित है। वीर सतमई मे मवधकारक एक व मे शून्य भी मिलता है-- ? વાંખી નળી વાત મેં ગીતાની મૂઠ (वाणी जगरानी का चिन्तन किया)
शून्य (दोहा---२) . सुमिण लगा वीर स4, वीग रौ कुलबाट
वीरा रो कुलवाट = वीरो का कुलमाग रौ (, ६)