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प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३१७
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हु अकार से परे ब० व० मे
(भ्यसो हु) हुँ इकार/उकार से परे ब० व० मे हु अकार से परे एक० व० मे
(डसेहहु) अपादान कारक के लिए प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे----ऑ और ओ दो बद्ध रूपिम है। प्रथम का प्रतिबंधित प्रयोग सर्वनामो के स्थानवाचक क्रियाविशेषण रूपो के साथ होता है, जैसे तिहाँ, ता, जिहाँ, जौ आदि । परन्तु, ये रूप प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे कम मिलते हैं । विचितता यह है कि इसी प्रा प रा से विकसित मारवाडी मे 'आँ' वाले अपादान रूप अधिक प्रयुक्त होते है और गुजराती मे इनका अभाव है। टैसीटोरी ने इस आँ को अपभ्र श मे प्रयुक्त अपादान बहुवचन रूपिम अहुँ से निकला हुआ कहा है तथा मारवाडी के 'ऑ' मे अ (ह) उँ का सकोचन विशेषता के रूप मे स्वीकार किया है। परन्तु, हेमचद्र के अनुसार अपभ्र श मे प्रयुक्त अपादान कारकीय रूपिमो मे - 'अहुँ' का परिगणन नही है, वहाँ पर रूपिम --'हुँ' है। आँ वाले अपादान रूपो के उदाहरण टसीटोरी ने निम्नलिखित दिए है--
१ कोपा जलि थयउ
२ सुख केडाँ दुख आवइ द्वितीय अपादान कारकीय रूपिम प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे ओ है। इसकी व्युत्पत्ति अपभ्र श अहु से मानी गई है, पर जैसा कि उपरिलिखित सूत्री से स्पष्ट है, अपभ्र श मे सीधे-'हु' का आदेश है । विभक्ति अहु मानकर पुन हुका विधान नहीं किया गया है। प्रा प रा मे ये प्रयोग नही हुए है जहाँ अपादान सज्ञा रू५ के बाद अधिकरण सज्ञा रूपो से युग्म बने है।
हाथो-हाथई, खण्डो-खण्डि, दिसो-दिसि मध्यकालीन राजस्थानी मे (वेलि मे) अपादान के लिए निम्नलिखित सहरूपिम मिलते हैं
०, हू, हुँताँ, हुँती, हुँवा,
हूत, हूता, हूती, हूतो, प्रति हू का उदाहरण हूँ ऊधरी पताल हूँ हुँता ,, ,
कुन्दणपुर हुँता वसा कुन्दपुरि हूंत , ,
दखिण हूँत आवतो उत्तर दिसि
कुसमथली हूँता कुन्दगपुरि हूंती, " -- हूँ ऊधरी निकुटगढ हुँती इन रूपो मे अपभ्र श का केवल प्रथम अद्धशि ही है। पुन अपभ्र श मे यह अद्वाश
हूँता
॥