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प्राकृत-अपभ्रंश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३११
कत्ता-कर्म एकवचन
पुल्लिग स्वरान्त प्रातिपदिको मे-उ प्रत्यय लगता है। अपभ्र श व्याकरण मे हेमचन्द्र ने इस स्थिति का आख्यान किया है। सूत्र है 'स्यमोरस्यात्' अर्थात् अपभ्र श मे प्रथमा और द्वितीया के एकवचन सज्ञा शब्दो के अन्त्य 'अ' का 'उ' होता है। 'सि' और 'अम्' क्रमश प्रथमा (का) एक० व० और द्वितीया (कर्म) एकवचन के बद्ध रूपिम हैं । हेमचंद्र ने दहमुहु भुवण भयकर तोसिअ सँकरू उदाहरण दिया है । दहमुहु (दशमुख) पुल्लिग एकवचन का कताकारकीय रूप है और सकर' द्वितीया एकवचन पुल्लिा रूप । प्राचीन राजस्थानी मे भी यह प्रवृत्ति
प्राण (आदिनाथ चरित्र) कुशीलउ (आदिनाथ चरित्र)
विवेकरूपीउ हाथीउ (शीलोपदेशमाला) परन्तु माध्यमिक और आधुनिक राजस्थानी मे यह प्रवृत्ति नहीं है। इसके साथ ही अपभ्र श मे एक और प्रवृत्ति विभक्ति लोप अथवा शून्य विभक्ति की भी पाई जाती है। हेमचंद्र ने कहा है -
स्यम्-जस्-शसा लुक ॥३४४।। अर्थात् सि, अम्, जस् और शस् मे विभक्ति का प्राय लोप होता है। सि, अम्, जस् और शस् क्रमश प्रथमा एक ०व०, द्वितीया एक०व०, प्रथमा ब०व० और द्वितीया बहु०व० के रूपिम हे । प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे व्यजनान्त और आकारान्त प्रातिपदिक निविभक्तिक पाए जाते है। विकल्प से इकारान्त प्रातिपदिको की भी यही स्थिति रही है। कभी कभी व्यजनान्त प्रातिपदिक भी उ-विभक्ति ग्रहण कर लेते हैं । राजस्थानी मे लोप की यह प्रवृत्ति है। कर्ता एकवचन और बहुवचन मे प्रातिपादिक ही पद के रूप मे प्रयुक्त होते है । बहुवचन मे भी व० व० सूचक रूपिम जोड। जाता है, कर्ता की कोई विशेष विभक्ति नहीं होती । आधुनिक राजस्थानी के
घोडो घास खार्या है ?
घोडा घास खाऱ्या है---२ प्रथम वाक्य मे घोडो' एक वचन मे का विभक्ति शून्य है, द्वितीय मे 'आ' बहुवचन सूचक है, कताकार की विभक्ति नहीं है । प्रातिपदिक ही पद के रूप मे कार्य कर रहा है। वेलि' के व्याकरण के प्रसंग मे कर्ता और कर्म की शून्य विभक्ति भी प्रदर्शित की गई है-- १ जाणे वाद माँडियो जीपण
वागहीन वागेसरी (७६-३)