SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत-अपभ्रश का राजस्थानी भाषा पर प्रभाव ३०७ अपन श के इन प्रयोगो का आख्यान हेमचंद्र ने मावस्मदो हउ' (३७६) तया महु मझुडसि डस्भ्याम् (३७५) सूत्रो मे किया है । इनके उदाहरण atic तसु हउ कलजुगि दुल्हहो तथा महु होन्त आगदो 'अ' का यह सकोचन राजस्मानी के सभी विकास चरणो मे पाया जाता हुआ आज भी सुरक्षित है वेलि मे, महण मथे मू लीध महमहण (७८ ६२) तथा कहिया मूं मैं तेम कहे गावण गुणनिधि हूँ निगुण वीर सतसइ मे हूँ' का प्रयोग अधिक है हूँ बलिहारी राणियाँ (दोहा ६४,६५) राजस्थानी वर्ग की मेवाडी मे 'मु' अधिक प्रचलित है। अपभ्र श 'इअ' का सकोचन 'ई' मे मिलता है। दिवस >अ५० दिअह>दीह (प्रा प. रा ) 'वेलि' में भी यह प्रयोग मिलता है-- त्रिणि दीह लगन वेला आडा ते (७६-६६) अपभ्र ण 'ए' प्रा प रा मे निम्नलिखित रूपो में परिवर्तित हुआ है (क) ए>इ अम्हे>अहि यह 'वेलि' मे भी है, 'ढोलामारू रा दूहा' मे भी है । एवं> इम के > किम >जिम प्रा प रा. के ये प्रयोग वेलि मे भी उपलब्ध होते हैं પદ્ધિ વિમ પૂર્વ પાપુની'प्रमणन्ति पुत्र इम मात पिता प्रति (छद-४) जा सुख दे स्थामा नै जिम (छद-३१) इस प्रकार माध्यमिक राजस्थानी मे तो ये प्रयोग मिलते हैं, पर आधुनिक राजस्थानी मे विरल है। मध्यवर्ती अनुस्वार का पूर्ववर्ती स्वर जब दीर्थ हो जाता है तो अनुस्वार अनुनासिक मे परिवर्तित हो जाता है
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy