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२८८ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
माहित्यिक अपभ्र श के विभिन्न क्षेत्रीय रूप है। दूसरे शब्दो मे प्राकृतो के उपलब्ध क्षेत्रीय २५ भिन्न-भिन्न भापार्य हैं अथवा किसी एक ही भाषा के क्षेत्रीय रूप हैं।
5- दृष्टि से जब हम विविध प्राकृत रूपो ५२ विचार करते है तो पाते हैं कि इनका नामकरण विभिन्न दूरवर्ती क्षेत्रों के आधार पर हुआ है तथापि इनमे केवल उच्चारण के धरातल पर थोडे से ध्वन्यात्मक अन्तर ही प्रमुख है। महाराष्ट्री मे स्वर बाहुल्यता है, हिस्वरान्तर्गत व्यजन का लोप हो जाता है तथा श् , स् सची वनिया काकल्य सघी 'ह' मे बदल जाती है । शौरसेनी मे द्विस्वरान्तर्गत स्थिति में अघोप व्यजनो का घोपीकरण हो जाता है। मागधी प्राकृत मे >ल् मे तथा मूर्वन्य प्' तथा दन्त्य 'म्' >तालव्य 'श्' मे परिवर्तित हो जाते है । अर्धमागधी प्राकृत मे दन्त्य > मूर्धन्य तथा मूर्धन्य ‘प्' एव तालव्य 'श्' > दन्त्य 'स्' मे परिवर्तित हो जाते है तथा हिवरान्तर्गत श्रुति का आगम हो जाता है। पंशाची प्राकृत मे सघोष >अधो५, र >ल तथा मूर्धन्य प्'> श् स् मे परिणत हो जाते है।
प्राकृतो के ये अन्तर अथवा इनकी विशिष्ट विशेषताये इतनी भेदक नहीं हैं कि इन्हें अलग-अलग भाषाओ का दर्जा प्रदान किया जा सके।
मराठी, हिन्दी, गुजराती, वगला आदि आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे केवल थोडे से ७०पारणगत भेद ही नही है अपितु इनमे भापागत भिन्नता है, पारस्परिक सरचनात्मक एक व्यवस्थागत अन्तर है तया पारस्परिक अवोधन का अभाव है। आज कोई मराठी भापी मराठी भाषा के द्वारा मराठी से अपरिचित हिन्दी, वाला, गुजराती आदि किमी आधुनिक भारतीय आर्य भाषा के व्यक्ति को भापात्मक स्तर पर अपने विचारों, सवेदनाओ का बोध नहीं कर पाता। भिन्न भापी व्यक्ति अभिप्रा को मकेतो, मुख मुद्राओ, भावभगिमाओ के माध्यम से भले ही समजावे, भाषा के माध्यम से नहीं समझ पाते । किन्तु अर्धमागधी का विद्वान् मागधी अथवा शो सेनी अथवा महाराष्ट्री प्राकृत को पढकर उनमे अभिव्यक्त विचार को समझ लेता है। इस रू५ मे जो साहित्यिक प्राकृत रूप उपलब्ध हैं उनका नामकरण भले ही सुदूरवर्ती क्षेत्रो के आधार पर हुआ हो किन्तु तत्वत ये
म यु। के जन-जीवन मे उन विविध क्षेत्रो मे वाली जाने वाली भिन्न-भिन्न भाषाय नहीं है और न ही आज की भाति इन क्षेत्रो मे लिखी जाने वाली भिन्न माहित्यिक मापाय हैं, प्रत्युत एक ही मानक अथवा साहित्यिक प्राकृत के क्षेत्रीय स्प हैं।
ऐसा नहीं हो सकता कि दसवी-बारहवी शताब्दी के बाद तो भिन्न-भिन्न भाषाय विकमित हो गई हो किन्तु उसके पूर्व प्राकृत युग मे पूरे क्षेत्र मे भापात्मक अन्त' न रहे हो । आधुनिक युग मे भारतीय आर्य भापा क्षेत्र' मे जितने भापात्मक