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शौरसेनी आगम साहित्य की भाषा का मूल्याकन २८५
२१६
२११
अधम्मस्स पजाहिदूण
वेददि आधाकम्म
२१६ विणस्संदे २८७ जिज्जदि
प्रवचनसार से
चरित्तादो
चदिद
१,१
सपज्ज दि
१,६
(जाणदि
पहाणादो तिघ, तधा तधा
१,६७
१,५५
१,१६ रजाणाद
जाणादि
अदिदिओ
जिहदि किध (कथ) १७२ लहदि
१,८१
समधिदन
१,८६
पचास्तिकाय से १, पिज्जादि १४५
पेदिय
१६६
इदसवदियाण
षट् खण्डागमसूत्र (छक्खडागमसुत्त) णाणाणि १,१ इमाणि १,१ अणियोगद्दाराणि १,५ सजदासजदा १,१३ पमत्तसजदा १,१४ अप्पमत्तसजदा १,१५ ओदेसण १,२४ णिरयगदी आदि १,२४ असजदसामादिट्टी १,२७ छदुमत्था १,२७ साधारणसरीरा १,४१ सोधम्मीसाण १,६६ पुरिसदा १,१०१ पदुसु १,१०५ भदिअण्णाणी १,११६
इस प्रकार के प्रयोगो से सारा ग्रन्थ भरा हुआ है।
कसायपाहुडसुत्त की सारी गाथाए शुद्ध शौरसेनी मे ही रची हुई है। यहा पर हम केवल एक गाथा ही उदाहरणार्थ देते है
गाहासदे असीदे अत्थे ५०णरसधा विहत्तम्मि ।
वोच्छामि सुलगाहा जयि गाहा जम्मि अथिमि ॥२॥ रेखाकित तीनो पद स्५०८त शौरसेनी भाषा के परिचायक हैं।
उक्त ग्रन्थो के पश्चात् जितने भी मूलाचार, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, भगवती आराधना, दर्शनसार, तिलोयपण्णत्ती, भावसग्रह, लब्धिसार, गोमटसार जीवाड, कर्मकाड आदि प्राकृत दि० जन ग्रन्थ है, वे सभी शौरसेनी मे ही रचे गये है।
मैंने वसुनन्दि श्रावकाचार के परिशिष्ट न० ५ मे प्राकृत धातु रूप और परिशिष्ट न० ६ मे प्राकृत शब्द रूप सग्रह दिया है, उससे भी दि० ग्रन्थो की शौरसेनी भाषा को अपनाने की बात भली भाति सिद्ध होता है।
इस प्रकार शौरसेनी प्राकृत का मूल उद्गम भले ही उत्तरी मथुरा का समीपवर्ती प्रदेश रहा हो, परन्तु दक्षिणी यानियो के उत्तर भारत में आने से तथा