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________________ २६४ . सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा सिंधुदे मे नदियो से, द्रविड देश में तालाबो से, उत्तरापथ मे कुओ से, और डिभरेलक (?) मे महिरावण (?) की वाट से खेतो की सिंचाई होती है (वृहत्कल्पभाष्य १-१२२६-३६)। भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी जैन आगम साहित्य का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है। प्राकृत भापाओ ने कालान्तर मे किस प्रकार अपभ्र श का रूप लिया મીર વિસ પ્રકાર ન્હોને હિન્દી, નરાતી, મરાઠી વાઢિ નિવમોર્ય બાપાનો को प्रभावित किया, इसकी कल्पना जैन आगम-साहित्य के अध्ययन के विना नही हो सकती है । इस संबंध मे हेमचन्द्र की 'देशी नाममाला' का उल्लेख अप्रासगिक न होगा। स्वय हेमचन्द्र के शब्दो मे "जो शब्द सिद्धहम शब्दानुशासन' व्याकरण मे सिद्ध नहीं किए जा सके, जो संस्कृत के अभिधान कोपो में मौजूद नहीं है, तथा गोण लक्षणा शक्ति से जो सभव है, उन शब्दो का संग्रह इन देशी शब्दो मे नही किया गया। उन्ही शब्दो का यहा संग्रह है जो महाराष्ट्र, विदर्भ और आभीर आदि देशो मे प्रसिद्ध है। किन्तु इस प्रकार के शब्दों की संख्या का अन्त नही, अतएव जीवन भर मे भी इन शब्दो का सग्रह कर सकना सभव नही । ऐसी दशा मे अनादिकाल से प्रचलित प्राकृत भाषा के विशेष शब्दो का ही यही सकलन किया गया है ।" इसमें सदेह नही कि हेमचन्द्र द्वारा किया हुआ यह संग्रह देशी शब्दो का अनुपम संग्रह है जो प्राकृत, अपभ्र श एवं उत्तर भारत मे वोली जाने वाली आधुनिक भारतीय भाषाओ के विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए परम उपयोगी है। भाषा की अनेकरूपता भाषा के सवध मे एक महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवान महावीर ने जिस मागधी भाषा मे अपना प्रवचन दिया था, उसका सही रूप जानने के हमारे पास साधन नहीं हैं। फिर, आगे चलकर पाटिलपुन, मसुरा और वलभि मे जो समयસમય પર અમિ કી વાવનાર્થે પ્રસ્તુત ફી , ડનમે ડન-ઇન પ્રવેશ ફી વોતિયો का प्रभाव आ जाना स्वाभाविक है । हम देखते है कि व्याकरण के प्रयोगो मे भी जैन आगमो मे एकरूपता दिखाई नही देती । कही यश्रुति मिलती है, कही नही मिलती, कही उसके स्थान मे 'इ' का प्रयोग किया गया है। वररुचि आदि वयाकरण यत्रुति को स्वीकार नहीं करते, हेमचन्द्र करते है, लेकिन उन्होने भी अपवादो की और लक्ष्य किया है। 'ण' और 'न' के प्रयोग के संबंध में भी एकपता नही । वररुचि ने सर्वत्र 'ण' के प्रयोग को स्वीकार किया है । हेमचन्द्र के अनुसार स्वर के पश्चात् असयुक्त और आदि मे न आने वाला 'न' 'ण' मे परिवर्तित हो जाता है, जबकि आप प्राकृत मे यह नियम लागू नही होता। आदि मे आने वाले
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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