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संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
( VI11 ) प्रकृति संस्कृतम्, तत्र भवत्वात् प्राकृतम् स्मृतम् पिटसन ( प्राकृतचन्द्रा )
२ द्वितीय पक्ष
( 1 ) 'प्राकृतेति' सकलजगज्जन्तूना व्याकरणादिभिरना हित सरकार सहजो वचनव्यापार प्रकृति, तत्र भव सैव वा प्राकृतम् । 'आरिनवयवो सिद्ध देवाण अद्धमागहा वाणी' इत्यादि वचनात् वा प्रा पूर्व कृत प्राक्कृत वालमहिलादिमुबोध मलमापानिवन्यभूत वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैक स्वरूप नदेव च देशविशेपात् मस्कारकरणाच्च नमासादितविशेष सत् संस्कृताद्युत्तर विभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादी निर्दिष्ट तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन सस्करणात् संस्कृतमुच्यते - नमिसाधु ।
( 11 ) सयलाओ इम वाया विसति एतो य णेंति वायाओ । एति समुद्द चिय णेति सायराओ च्चिय जलाइ ||
वाक्पतिराज |
( 111 ) या योनि किल संस्कृतस्य सुदृशा जिह्वामु यन्मोदते ।
राजशेखर
उपर्युक्त दोनो पक्षो का विश्लेषण हम इस प्रकार कर सकते हैं कि प्राकृत वस्तुत जनबोली थी, जिसे उत्तरकाल मे संस्कृत के माध्यम से समझने-समझाने का प्रयत्न किया गया । प्राकृत भाषा के समानान्तर वैदिक संस्कृत अथवा छान्दम भाषा थी, जिसका साहित्यिक रूप ऋग्वेद और अथर्ववेद मे विशेष रूप से दृष्टव्य है । यास्क ने इसी पर निरुक्त लिखा और पाणिनि ने इसी को परिष्कृत किया । विडम्वना यह है कि प्राकृत के प्राथमिक रूप को दिग्दर्शित कराने वाला कोई साहित्य उपलब्ध नही, जिसके आधार पर उसकी वास्तविक स्थिति समझी जा सके । हा, यह अवश्य है कि प्राकृत के कुछ मूल शब्दो को वैदिक मस्कृत मे प्रयुक्त शब्दों के माध्यम से समझा जा मकता है । वैदिक रूप विकृत, किंकृत, निकृत, दन्द्र, अन्द्र, प्रथ्, ग्रथ्, क्षुद्र क्रमश प्राकृत के विकट, कीकट, निकट, दण्ड, अण्ड, पठ, घट, क्षुल्ल, रूप थे जो धीरे-वीरे जनभाषा से वैदिक साहित्य मे पहुच गए। इन शब्दो और ध्वनियों से यह कथन अतार्किक नहीं होगा कि प्राकृत जनबोली थी, जिसे परिष्कृतकर छान्दस भाषा का निर्माण किया । जनबोली का ही विकास उत्तरकाल मे पालि, प्राकृत, अपत्र ण और आधुनिक भारतीय भाषाओ के रूप मे हुआ । तथा छान्दस भाषा को पाणिनि ने परिष्कृत कर लौकिक संस्कृत का रूप दिया साधारणत लौकिक संस्कृत मे तो परिवर्तन नही हो पाया पर प्राकृत जनबोली सदैव परिवर्तित अथवा विकसित होती रही । संस्कृत भाषा को शिक्षित और