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प्राकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एव विकास २०७
१७, १८, १६, २३, २४ हैमव्याकरण मे ८ ३ २४, ८ ३ ७, ८ ३ ६, ८ १८, ८११६ मे उपलब्ध है । हेम ने आर्ष प्राकृत के उदाहरण वे ही दिये हैं, जो चड ने। किन्तु स्वर और व्यजन परिवर्तन के सिद्धान्त प्राकृत लक्षण मे बहुत सक्षिप्त
है, जिनका हेमचन्द्र ने बहुत विस्तार किया है। तद्धित, वृतप्रत्यय, धात्वादेश __ और अपभ्र श व्याकरण का अनुशासन च की अपेक्षा हैमव्याकरण मे नवीनता और विस्तार लिये हुए है।
विषयक्रम और वर्णनशैली दोनो मे हेमचन्द्र ने वररुचि का अनुकरण किया है। कुछ सिद्धान्त ज्यो के त्यो प्राकृतप्रकाश के उन्होने स्वीकार किये है । किन्तु अनेक बातो मे हेमचन्द्र वररुचि से अपनी विशेषता रखते हैं। वररुचि ने धातुओ के अर्थान्तरी का कोई सकेत नही दिया है, जबकि हेम ने धातवोर्थान्तरेऽपि ८ ४ २५६ द्वारा धातुओ के बदलते हुए अर्थों का निर्देश किया है । जैसे
बलि धातु प्राणन अर्थ मे पठित है, किन्तु खादन अर्थ मे भी इसका प्रयोग होता है। कलि धातु गणना के अर्थ मे पठित है पर पहिचानने के अर्थ मे भी वह प्रयुक्त होता है कलइ जानाति सख्यान करोति वा । इत्यादि ।
हेमचन्द्र ने यश्रुति का विधान किया है, जिसका पररुचि मे अभाव है। सेतुबन्ध, गउडवहो आदि काव्यो मे यश्रुति का प्रयोग है, जिसका हेम ने नियमन किया है । वररुचि ने जहा तीन-चार तद्धित प्रत्ययो का उल्लेख किया है, वहा हेम ने सैकडो प्रत्ययो का नियमन किया है । डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने हेम और वररुचि के सूत्रो की तुलनाकर भी यह निष्कर्ष निकाला है कि हेमचन्द्र का व्याकरण अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणो की अपेक्षा अधिक पूर्ण और वैज्ञानिक है ।३९ यही कारण है कि हैमव्याकरण से परवर्ती वैयाकरण भी प्रभावित होते रहे है । यद्यपि उनकी अपनी मौलिक उद्भावनाए भी हैं, जो उनके व्याकरण ग्रन्थो के मूल्याकन से स्पष्ट हो सकेगी।
हेमप्राकृत व्याकरण पर टीकाए
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण पर 'तत्वप्रकाशिका' नामक सुवोधवृत्ति (बृहत्वृत्ति) भी लिखी है। मूलमन्थ को समझने के लिए यह वृत्ति बहुत उपयोगी है। इसमे अनेक ग्रन्थो से उदाहरण दिये गये है। एक लघुवृत्ति भी हेमचन्द्र ने लिखी है, जिसको 'प्रकाशिका' भी कहा गया है। यह स. १६२६ मे बम्बई से प्रकाशित हुई है।
हेमप्राकृतव्याकरण पर अन्य विद्वानो द्वारा लिखित टीकाको मे निम्न प्रमुख
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१ द्वितीय हरिभद्रसूरि ने १५०० ५लोक प्रमाण हैमदीपिका' नाम की टीका