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२०४ या कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा
जाती है। क्योकि उसके छह परिच्छेद प्राकृतप्रकाश के प्रथम सात परिच्छेदो मे ठीक-ठाक मिलते हैं। वरचि के ग्रन्थ पर चीयी टीका वसन्तराजकृत 'प्राकृतसजीविनी' है। १४-१५वी शताब्दी में यह टीका लिखी गयी थी। कर्पूरमजरी मे इस ग्रन्थ का नाम आता है-'तदुक्तम् प्राकृतसजीविन्याम् ।' डा० पिशेल इस टीका को वसन्तराज का स्वतन्त्र प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ मानते है। किन्तु प्राकृत प्रकाश से इस ग्रन्थ की इतनी समानता है कि इसे उसकी टीकाही मानना उचित है। क्योकि वसन्तराज ने कोई स्वतन्त्र मूत्र नही कहे है । प्राकृतप्रकाश पर सदानन्दकृति 'प्राकृत सुबोधिनी' नाम की भी टीका है, जिसका प्रकाशन वनारस से हुआ है। १७वी शताब्दी मे रामपाणिपाद ने प्राकृत प्रकाश पर एक सस्कृत वृत्ति लिखी है। इसमे सेतुबन्च, गाहासत्तसई आदि से उदाहरण दिये गये है। यह वृत्ति १९४६ मे मद्रास से कुनहन राजा द्वारा प्रकाशित हुई है।
इस तरह प्राकृत व्याकरण के गहन अध्ययन के लिए वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश एवं उसकी टीकाओ का अध्ययन नितान्त अपेक्षित है। महाराष्ट्री के साथ मागधी, पैशाची एक शौरसेनी का इसमे विशेष विवेचन किया गया है।
प्राकृत प्रकाश की इस विषयवस्तु से स्पष्ट है कि वररुचि ने विस्तार से प्राकृत भाषा के रूपो को अनुशासित किया है । चई के प्राकृत लक्षण का प्रभाव वररुचि पर होते हुए भी कई बातो मे उनमे नवीनता और मौलिकता है।
प्राकृतप्रकाश पर टीकाए __वररुचि का प्राकृत व्याकरण प्राचीन होते हुए पूर्ण भी है । अत उस पर कई विद्वानो ने टीकार लिखी है । डा० पिशेल ने इसका सबसे प्राचीन टीकाकर भामह को माना है, जिसकी टीका का नाम 'मनोरमा' है। किन्तु पिशेल जिस अज्ञातनामा टीका 'प्राकृतमजरी' का उल्लेख करते है और जिसे विशेष महत्व की नही मानते ३१ उसके टीकाकार का नाम विद्वान् कात्यायन निश्चित करते हैं । अत कात्यायन भामह से पूर्ववर्ती है। लगभग छठी-सातवी शताब्दी मे कात्यायन ने प्राकृतमजरी नामक टीका पद्य मे लिखी थी । इसका प्रकाशन १९१३ मे निर्णय सागर प्रेस से हुआ। १६१४ मे कलकत्ता से बी० के० चटर्जी ने मूल ग्रन्थ के साथ इसे प्रकाशित किया। यह टीका पूरे प्राकृतप्रकाश पर नही है।
भामहकृत मनोरमा टीका का कई स्थानो से प्रकाशन हुआ है। यह टीका प्राकृतप्रकाश के १२वे परिच्छेद पर नहीं है। इस टीका मे वररुचि के कई सूत्रो को यथावत् नही समझा गया है। स्वयं भामह ने कई स्थानो से उद्धरण ग्रहण कर दिये हैं। डा० पिशेल ने उनमे से कुछ की खोज-बीन की है।