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प्रकृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव एवं विकास २०१
भाषाओ की विशेषताए कही है, जो अपभ्र श व्याकरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पैशाची और शौरसेनी की विशेपताए भी उसमे इगित होती है ।
चण्ड प्राकृतलक्षण
प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणो मे चडकृत प्राकृतलक्षण सर्वप्राचीन सिद्ध होता है। भूमिका आदि के साथ डा० रूडोल्फ होएनले ने सन् १८८० मे बिब्लिओयिका इडिका मे कलकत्ता से इसे प्रकाशित किया था।२३ सन् १९२६ मे सत्यविजय जैन ग्रन्थमाला की ओर से यह अहमदाबाद से भी प्रकाशित हुआ है । इसके पहले १६२३ मे भी देवकीकान्त ने इसको कलकत्ता से प्रकाशित किया था।
ग्रन्थ के प्रारम्भ मे वीर (महावीर) को नमस्कार किया गया है तथा वृत्ति के उदाहरणो मे अर्हन्त (सू० ४६ व २४) एव जिनवर (सूत्र ४८) का उल्लेख है। इससे यह जैनकृति सिद्ध होती है। ग्रन्थकार ने वृद्धमत के आधार पर इस ग्रन्थ के निर्माण की सूचना दी है, जिसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि चण्ड के सम्मुख कोई प्राकृत व्याकरण अथवा व्याकरणात्मक मतमतान्तर थे । यद्यपि इस ग्रन्य मे रचना काल सम्बन्धी कोई राकेत नही है, तथापि अन्त साक्ष्य के आधार पर डा० हीरालाल जैन ने उसे ईमा की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना स्वीकार किया है ।२४
प्राकृत लक्षण मे चार पाद पाये जाते हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ मे चड ने प्राकृत शब्दो के तीन रूपो तद्भव, तत्सम एव देश्य-को सूचित किया है तथा सस्कृतवत् तीनो लिंगो और विभक्तियो का विधान किया है । तदनन्तर चौथे सूत्र मे व्यत्यय का निर्देश करके प्रथमपाद के ५वे मूत्र से ३५ सूत्रो तक सज्ञाओ और सर्वनामो के विभक्ति रूपो को बताया गया है। द्वितीय पाद के २६ सूत्रो मे स्वर परिवर्तन, शब्दादेश और अव्ययो का विधान है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रो मे व्यजनी के परिवर्तनो का विधान है। प्रथम वर्ण के स्थान पर तृतीय का आदेश किया गया है। यथा-एक = एग, पिशाची = विसाजी, कृत कद आदि । ___इन तीन पादो मे कुल ६६ सूत्र हैं, जिनमे प्राकृत व्याकरण समाप्त किया गया है। हाएनले ने इतने भाग को ही प्रामाणिक माना है। किन्तु इस ग्रन्थ की अन्य चार प्रतियो मे चतुर्थपाद भी मिलता है, जिसमे केवल ४ सूत्र है । इनमे क्रमश कहा गया है १ अपभ्रश मे अधोरेफ का लोप नही होता, २ पैशाची मे र् और स् के स्थान पर ल और न् का आदेश होता है, ३ मागधी मे र् और स् के स्थान पर ल और श् का आदेश होता हे तथा ४ शौरसेनी मे त् के स्थान पर विकल्प से द् आदेश होता है। इस तरह ग्रन्थ के विस्तार, रचना और भापा स्वरूप की दृष्टि से चड का यह व्याकरण प्राचीनतम सिद्ध होता है। परवर्ती प्राकृत वैयाकरणो पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जाते है। हेमचन्द्र ने भी, चड से बहुत कुछ ग्रहण किया है ।२५